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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.आत्मदेव तथा धुंधुली की कथा
अब संन्यासी को लगा कि इसके मन में बड़ा आग्रह है, अतः और कोई बात इसकी समझ में नहीं आएगी। उसे एक फल दिया और बोले, ‘‘यह फल तुम अपनी पत्नी को खिला देना। एक साल तक उसे अच्छे व्रत करने चाहिए। सत्य, शौच व दया का पालन करना चाहिए, दान करना चाहिए तथा एक समय भोजन करना चाहिए। एक साल के बाद उसके गर्भ से पुत्र होगा। वह बड़ा ज्ञानी होगा।’’ आत्मदेव बड़े खुश हुए। घर आकर पत्नी को फल दिया और सारी बाते उसे बताकर अपने कार्य से चले गये। पत्नी को बड़ा दुःख हुआ। बोली, अब मैं यह फल खाऊँगी तो गर्भ रहेगा और शरीर बढ़ेगा। तब काम करना कठिन हो जाएगा। घर में इतना सारा काम रहता है। दिन में एक बार खाने के लिए बोला गया है। ऐसा करने से मुझमें ताकत नहीं रहेगी। ताकत नहीं रहेगी तो घर का काम कैसे होगा? और मानो कभी गाँव में चोर-डाकू आ गये, तो गर्भ के कारण मैं भाग भी नहीं पाऊँगी। (यह सब भागवत मे लिखा हुआ है।) दैवाद् धाटी व्रजेद्ग्रामे पालायेद्गर्भिणी कथम्।[1] मैं ऐसी सुकुमारी हूँ। गर्भधारण के ये सब दूःख मैं कैसे सहन कर पाऊँगी? सत्य-शौच-दान-दया-तप ये सब कठिन नियम हैं। ये सब तो मुझसे नहीं हो पाएँगे। वह कहती है- वंध्या नारी या विधवा ही अच्छी है, पुत्रवती नहीं। ऐसे कुतर्क करके उसने फल नहीं खाया। आत्मदेव जब लौट आये तो उन्होंने पूछा- तुमने वह फल खा लिया? बोली- हाँ खा लिया। झूठ बोली। उसकी एक बहन थी उसी के जैसी। बहन आयी तो उससे कहती है- बड़ा दुःख आ गया है। उसने पूछा- क्या हुआ? सारा वृत्तांत बताकर कहती है मैं तो नहीं चाहती, अतः अब क्या करुँ? तो उसकी बहन ने कहा- मुझे बच्चा होने वाला है, तुम ऐसा नाटक करो कि तुमको गर्भ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा.मा. 4.46
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