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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.वराह-अवतार
कहने की बात यह है कि यह प्रेम है! तो देखो, पृथ्वी का गुण है- गन्ध। और गन्ध का ग्रहण नाक से होता है। अतः पृथ्वी का उद्धार करना हो, तो पृथ्वी का प्रेमी बनकर- सुकर बनकर आना पड़ेगा इसलिए कि उसमें नाक की ही प्रधानता है। इसीलिए यहाँ कहा ब्रह्माजी की नाक से भगवान वराह रूप में प्रकट हुए, यही दिखाने के लिए कि वे बड़े पृथ्वी प्रेमी हैं। पृथ्वी का उद्धार वे स्वयं करेंगे। और यह भी दिखाने के लिए कि सारे रूपों में- चाहे वह मछली का रूप हो चाहे कछुए का, सभी रूपों में भगवान ज्यों-के-त्यो बने रहते हैं। एक ही भगवान अलग-अलग रूप में आते रहते हैं। कबीरदास जी ने एक सुंदर पद लिखा है। उसके अन्त में उन्होंने एक बात कही है-
‘हरि को हर में देखा’। हरि को हर रूप में देखा। वे अलग-अलग रूप में आते हैं- कभी मछली के रूप में आते हैं, कभी कछुए के रूप में, तो कभी वराह के रूप में। लेकिन हर रूप में- ‘हरि जैसे का तैसा’, वे ज्यों-के-त्यों रहते हैं। इसलिए कहा - ‘नमः कारण सूकराय’ यह वेदान्त की बात है। तो भगवान वराह रूप में आते हैं और पृथ्वी का उद्धार करते है, क्योंकि इस कार्य के लिए योग्य रूप वही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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