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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.प्रियव्रत-चरित्र
विदुरजी तो नमस्कार करके चले गए। लेकिन परीक्षित अभी बैठे हैं। परीक्षित ने कहा, ”महाराज, आपने राजा मनु की कन्याओं के बारे में बताया। उत्तानपाद के बारे में बताया, अब प्रियव्रत के बारे में बताइये। मैंने सुना है कि राजा प्रियव्रत बड़ा ही महाभागवत था। उसे तो संसार से या गृहस्थाश्रम से जरा भी प्रेम नहीं था। फिर भी वह गृहस्थाश्रम में कैसे रहा? क्योंकि जिसका मन ब्रह्म में लग जाता है उसको फिर ग्रृहस्थाश्रम में कोई रस नहीं दिखाई देता। तब वह क्यों उसमें लगा रहा?“ शुकदेवजी बोले - तुमने अच्छा प्रश्न पूछा है। यह सच बात है कि प्रियव्रत को गृहस्थाश्रम में कोई रस नहीं था। मनु महाराज उन्हें राजा बनाना चाहते थे। परन्तु वे तो नारदजी के पास चले गए। वहाँ वे नारदजी के उपदेशानुसार सूर्य भगवान की देवताओं की तथा विष्णु भगवान की उपासना किया करते थे। तब मनु महाराज ब्रह्माजी के पास गये। वे बोले, ”मेरा लड़का निवृत्ति मार्गी हो गया है। उसको जरा समझा-बुझाकर आप गृहस्थाश्रम में ले आइये।“ ये गृहस्थाश्रमी लोग ऐसे ही होते हैं। कोई संन्यासी हो जाए यह उनसे देखा नहीं जाता। ब्रह्माजी आये और उन्होंने प्रियव्रत को वही उपदेश दिया, जो सभी माता-पिता अपने बेटों को देते रहते हैं। बेटा, साधना तो तुम संसार में रहकर भी कर सकते हो। यह सर्व सामान्य उपदेश है। हम सब लोग ईश्वर की आज्ञा में रहने वाले हैं। कौन उसके विपरीत चल सकता है? तुम भी गृहस्थाश्रम में प्रवेश करो। यदि तुम अपने सब काम भगवान की पूजा समझकर करोगे तो यह गृहस्थाश्रम तुम्हें बाँध नहीं सकेगा। उसमें रहते हुए भी तुम काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि को जीत सकते हो ‘विमुक्तसंग प्रकृतिं भजस्व’[1] अब तुम निश्चिंत हो जाओ। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, क्योंकि तुम तो बड़े योग्य हो। प्रियव्रत नारदजी की ओर देखने लगे। अब नारदजी क्या कहते? ब्रह्माजी तो उनके पिता हैं। अतः नारदजी ने कहा - ठीक है, तुम जाओ और ब्रह्माजी की आज्ञा का पालन करो। इस प्रकार प्रियव्रत बिना अपनी इच्छा के ही गृहस्थाश्रम में आते हैं। वे ऐसे श्रेष्ठ पुरुष हुए कि उनके विषय में कहा जाता है - उन्होंने जो रथ चलाया तो चलाते चले गये। सारे ब्रह्माण्डों को भी देख लिया, दिन-रात एक कर दिया। माने, प्रियव्रत ने काल पर विजय प्राप्त की, देश पर भी विजय प्राप्त की। सप्त-द्वीपों का निर्माण किया। तो प्रियव्रत के जैसा दूसरा कौन होगा? उनके दस पुत्र हुए - आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि। जिनमें से तीन महावीर, सवन और कवि ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हो गये। अन्य सभी पुत्र कर्म क्षेत्र में लग गये। प्रियव्रत ने भगवान की भक्ति पूर्वक राज्य किया। उनका राज्य बड़ा समृद्धिशाली बन गया। एक दिन उनको लगा ‘मैं कहाँ फँस गया?’ ब्रह्माजी की बात मान कर मैं यहाँ पर आ गया। वे कहते थे - यहाँ गृहस्थाश्रम में भी सब साधन हो सकता है। लेकिन यहाँ तो मैं दूसरी ही चीजों में पड़ा रहा। भगवान की भक्ति जिस प्रकार से करनी चाहिए उस प्रकार से नहीं कर पाया। अब सब कुछ छोड़कर चले जाना चाहिए। इस प्रकार सोचकर प्रियव्रत को सब चीजों से वैराग्य हो गया। सब छोड़कर वह जंगल में चले गए और वहीं पर फिर से उपदेश ग्रहण करके उन्होंने अपने मन को भगवान में लगा दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.1.19
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