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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.नारद जी की सनत्कुमारों से भेंट
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद्भागवतार्णवम्।।[1] तो भगवान ने अपने श्रीकृष्णरूप को अन्तर्धान कर दिया और वे स्वयं, भागवत में प्रविष्ट हो गये। इसलिए, भागवत भगवान की शब्दमयी मूर्ति है। वाड्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः[2] तब इस भागवत के श्रवण से, पठन से यदि सारे दुःख दूर हो जाते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है? अब वहाँ (जहाँ सनकादि भागवत कथा कर रहे थे) एक आश्चर्य हुआ। अभी भागवत कथा का आरंभ हुआ ही था इतने में भक्तिमाता अपने दोनों पुत्रों को लेकर वहाँ आ गयीं और वे दोनों तरुण बनने लगे, भागवत सप्ताह करने के संकल्प मात्र से! है न आश्चर्य?
भक्तिमाता कहने लगीं, ‘‘आप धन्य हैं। आपको बहुत-बहुत धन्यवाद! आपने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया।’’ कृाहं तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु’[4] अब यह बताइये कि मैं कौन से स्थान पर रहूँ? सनत्कुमारो ने कहा, ‘‘तुम वैष्णव लोगों के हृदय में रहो।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग भगवान विष्णु की उपासना करते हैं, उनके हृदय में भक्ति रहती है। अर्थात जब हम अपने हृदय को वैष्णव बनाएँगे तब उस हृदय में भक्ति का आविर्भाव होगा।
’सकलभूवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्या’ वे लोग धन्य हैं, जिनके हृदय में भगवान की भक्ति रहती है। लौकिक दृष्टि से वे नितांत निर्धन हों, तो कोई बात नहीं है क्योंकि भक्ति को देखकर भगवान अपने लोक को छोड़कर यहाँ आ जाते हैं भक्तों के हृदय में ही रहते हैं। भक्ति सूत्र बँधे रहते है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उस सभा में सब के हृदय में भक्ति छा गई है तो वे स्वयं सबके हृदय में प्रकट हो गए। सबकों अपने देह-गेह की विस्मृति हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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