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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.परीक्षित के प्रश्न का उत्तर
गीता जी हमें सिखाती है कि कैसे जीना चाहिए और भागवत में बताते हैं कैसे मरना चाहिए। दोनों एक ही बात हैं। क्योंकि स्मरण उसी का होता है जिसका पहले (श्रवणद्वारा) ग्रहण किया होगा। जिसका पहले कभी ग्रहण न हुआ हो, उसका स्मरण नहीं होता। दिनरात हम जिसे ग्रहण करेंगे, उसी का स्मरण होता रहेगा। अब शुकदेव जी कहते हैं, प्रायः आत्मज्ञानी समाधिस्थ पुरुष समाधि में रमते हैं। मैं भी निर्णुणावादी हूँ, अपने आत्मरूवरूप में स्थित हूँ, लेकिन क्या करूँ?
उत्तमश्लोक भगवान की लीला ही ऐसी है कि मैं उसकी ओर खिंचा चला गया। ऐसा खिंचा गया कि मेरे पिताजी मुझे इसका श्रवण कराने लगे और मैंने इसे पूर्णरूप से हृदयंगम कर लिया। एक बार उसकी ओर आकर्षण हो जाए, तो बुद्धि स्थिर हो जाती है। दो मिनट भी अगर मन इसमें लग जाए और विशेष करके मरण काल में लग जाए, तो फिर कहना ही क्या है? अज्ञानी लोग कई सालों तक यहाँ जीते रहते हैं, उसका क्या लाभ? भगवान को भुलाकर दीर्घ आयु तक यहाँ जीते रहे तो क्या किया? ‘वरं मुहूर्तं विदितं घटेत श्रेयसे यतः’ - भगवान का स्मरण करते हुए यदि कोई थोड़ी देर भी जीता है, तो वह सार्थक है। श्रीशुकदेव जी यहाँ खट्वाँग राजा का स्मरण करते हैं, जिसकी कथा आगे नवम स्कन्ध में आने वाली है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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