विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
21.हंसोपाख्यान
भगवान उद्धव जी से कहते हैं, ”इस प्रकार मैंने उनकी शंका का निवारण किया। तब सनकादि परम ऋषियों ने परम भक्ति भाव से मेरी पूजा की, संस्तुति की और उसके बाद मैं वहाँ से अन्तर्धान हो कर फिर अपने धाम लौट आया। अब तुम चिन्ता का त्याग कर मेरा भजन करो। तुम्हारी समस्या का समाधान हो जायेगा।“ तब उद्धव जी कहते हैं -
भगवान! श्रेयमार्ग की प्राप्ति के लिये लोग तीर्थाटन, यात्रा, जप, स्नान, दान आदि अनेक प्रकार के उपाय बताते हैं। कलियुग में तो इनकी संख्या और भी अधिक हो गयी है। नए-नए ग्रन्थों की रचना भी हो रही है। लोग उपनिषद् परम्परा को छोड़ते जा रहे हैं। क्या इन सभी मार्गों का महत्त्व एक समान है अथवा इनमें से कोई मार्ग प्रधान और कोई गौण भी है? क्या इनमें कोई मार्ग मिथ्या भी है? भगवान कहते हैं - प्रलय काल में यह वेद या उपनिषद् परम्परा लुप्त हो गई थी। अतः पुनः जब सृष्टि का समय आया तब मैंने ही उसका उपदेश ब्रह्माजी को किया था। उन्होंने फिर उसका उपदेश स्वायंभुव मन को किया, मन ने भृगु आदि महर्षियों को और महर्षियों ने देव, दानव, मानव, किन्नर आदि बहुतों को किया। परन्तु, इन सब का स्वभाव, रुचि, अन्तःकरण, कर्म-वासना आदि सब भिन्न-भिन्न होने से, उसी उपदेश में से कई-कई मार्ग निकल आए। अतः यह सत्य है कि उपाय अनेक बताये जाते हैं। तथापि तुम इतनी बात समझ लो कि उनमें से जो मेरी भक्ति के अनुकूल हों, वे ठीक हैं, परन्तु जो भक्ति के प्रतिकूल हों, विरोधी हों वे ठीक नहीं हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.14.1
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |