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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.उद्धवगीता
जैसे, कोई सिनेमा या नाटक देखने जाए और उसमें होने वाली घटनाओं को वास्तविक समझ बैठे तो उसे बड़ा दुःख होगा। जबकि, यदि वह उन्हें चित्रपट का सत्य समझे, तो फिर उन दुःखद घटनाओं को देखते हुए भी वह उनसे अप्रभावित रहेगा। बल्कि तब उन्हीं घटनाओं से उसका मनोरंजन हो सकता है, तब उन्हें देखकर वह आनन्दित हो सकता है कि देखो कितनी अच्छी तरह से दर्शाया गया है, कितना अच्छा अभिनय हैं
इस प्रकार, मन व इन्द्रियों से जो कुछ भी ग्रहण होता है, वह सब वास्तविक नहीं, मायिक है, मनोमय है।
भगवान उद्धवजी से कहते हैं कि बात यह है कि जिसका मन स्थिर न हो, एकाग्र न हो, अपने स्वरूप में स्थित न हो, वह बड़ा चंचल होता है। एक बार जब उस अस्थिर या चंचल मन का व्यापार प्रारम्भ होता है, तो जगत का व्यवहार भी प्रारम्भ हो जाता है। इसके विपरीत, जब मन का व्यवहार नहीं होता तब इस जगत का अनुभव भी नहीं होता। यह सबको मालूम है, सबके अनुभव की बात है। जैसे, निद्रा में मन का व्यापार नहीं होता, तब क्या हमें जगत का अनुभव होता है? नहीं होतां सुख-दुःख, राग-द्वेष, प्रिय-अप्रिय आदि वृत्तियाँ अथवा कोई समस्या, कष्ट या पीड़ा किसी बात का अनुभव नहीं होता। इसीलिए तो लोग सो जाना चाहते हैं, नशीली दवाएँ लेते हैं, क्या-क्या नहीं करते-जिससे कि उसका मन उन समस्याओं से हट जाए! इसका अर्थ यही तो हुआ कि मन गतिमान् हो, मन सक्रिय हो, तो जगत का अनुभव होता है, अन्यथा नहीं होता। इस तर्क से यही सिद्ध होता है कि सब मन का ही प्रक्षेपण है, अर्थात मनोमय है। इसीलिए कहा ये सारे विक्षेप मन के ही हैं, मन जैसे ही चंचल होता है वैसे ही विभिन्न प्रकार से गुण-दोष भी भासने लगते हैं। और यदि मन स्थिर हो जाए तो ये सब नहीं भासते, जगत का अनुभव नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.7.8
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