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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
16.भगवान श्रीकृष्ण से उद्धव जी की प्रार्थना
भगवान को प्रणाम करके कहते हैं, “भगवान यह देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है कि ब्राह्मणों का शाप मिला है इसलिए आप इन सबको यहाँ से भेज रहे हैं।
आप ब्रह्मशाप को निरस्त कर (काट) सकते थे, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। उसकी जगह आप सबको प्रभास क्षेत्र में भेज रहे हैं। इसका अर्थ मैं समझ गया। अब, शाप के कारण जैसे ही इस यदुकुल का नाश हो जाएगा, वैसे ही आप इस धरा धाम को छोड़कर यहाँ से चले जाएँगे।”
“भगवान! आपके चरण कमलों को छोड़कर मैं आधे क्षण के लिए भी यहाँ नहीं रह सकता। अब तक खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते मैं आप ही के साथ रहा हूँ। मैने हर क्रिया आपके साथ-साथ की है। आपके कारण मुझे यहाँ रहने में आनन्द भी मिलता रहा। यदि आप लौट कर अपने धाम जा रहे हैं, तो मुझे भी अपने साथ ले चलिए।” भगवान ने कहा, “तुम मेरे साथ कैसे जा सकते हो?” उद्धव जी ने कहा, “क्यों नहीं जा सकता? आप गरुड़ के ऊपर बैठकर जाएँगे। मैं भी गरुड़ को पकड़ लूँगा। इस प्रकार मैं भी आप के साथ चलूँगा।” भगवान हँसकर कहते हैं, “मेरे धाम में गरुड़ का भी प्रवेश नहीं है क्योंकि वह कोई लोक विशेष नहीं है कि जहाँ किसी वाहन पर बैठकर जाया जा सके। वह तो अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। उसे जान लेने के बाद न तो कोई अज्ञान शेष रहता है और न ही वहाँ से लौटना पड़ता हैं। उसे ये सूर्य चन्द्र अग्नि आदि कोई प्रकाशित नहीं करते वरन् ये सब उसी से प्रकाशित होते हैं।” तब उद्धव जी ने कहा, “आपका ऐसा कौन सा धाम है?” बोले, “किसी संत से पूछ लो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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