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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
85.भृगुऋषि द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा
भगवान ने उनके चरण चिह्नों को अपने हृदय पर सदा के लिए धारण कर लिया, जिससे यह प्रकट हो जाता है कि उन्हें ब्राह्मणों से कितना अधिक प्रेम है। लेकिन वहाँ पर लक्ष्मी जी भी थीं। भृगु ऋषि का वह व्यवहार देखकर उन्हें क्रोध आ गया। तबसे लक्ष्मी जी ब्राह्मणों के पास जाती ही नहीं। ठीक ही तो है, भगवान भले ही क्षमा कर दें, लेकिन क्या उन्हें वैसा करना चाहिए था? लक्ष्मी जी को लगा मेरे सामने ही भगवान को लात मार दी। कुछ कहना न सुनना, आ कर सीधे लात मार देना, यह कौन-सा तरीका होता है। भृगु ऋषि ने जो किया, उसे अभी तक ब्राह्मण लोग भोगते हैं। ऐसी बात यहाँ कही गई है। फिर वर्णन आता है कि एक बार द्वारका का एक ब्राह्मण, इस बात से बड़ा दुःखी था कि उसके पुत्र जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके लिए वह राजा को दोषी ठहराकर राजद्वार के सामने विलाप करता था। जब उसके नवें बालक की भी मृत्यु हो गई तब वह पुनः राजद्वार पर पहुँचा। उस समय अर्जुन वहीं थे। उन्होंने उसे वचन दिया कि मैं आपकी संतान की रक्षा करूँगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगा। जब अर्जुन वैसा करने में सफल नहीं हुए तब भगवान उस ब्राह्मण के सभी मृत पुत्रों को लौटा लाए। ऐसा करके भगवान ने अर्जुन के वचन की तथा प्राणों की रक्षा की और उस ब्राह्मण तथा अन्य प्रजा पर कृपा की। इसके बाद, दशम स्कन्ध का जो अन्तिम अध्याय है उसमें भगवान के लीला विहार का वर्णन किया गया है। द्वारका में श्रीकृष्ण 16000 से अधिक रानियाँ थीं। उन सब के अपने-अपने बड़े सुन्दर-सुन्दर महल थे। जितनी रानियाँ थीं उतने ही रूप धारण करके भगवान उनके साथ लीला विहार करते थे। संक्षेप में, भगवान की पत्नियाँ उनसे कितना अनुराग करती थीं, कितना अधिक प्रेम करती थीं, इन सबका यहाँ सुन्दर वर्णन किया गया है। फिर श्रीशुकदेव जी ने यदुवंश की सन्तति का संक्षिप्त वर्णन किया है। उसके बाद कहा कि सारे देवतागण ही यदुवंशियों के रूप में अवतरित हुए थे। वे सब श्रीकृष्ण से अति स्नेह करते थे और उसी भाव में डूबे रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण सर्वत्र हैं, वे ही सबके आश्रय स्थान हैं। तथापि अधर्म का अन्त करके, प्राणियों का दुःख मिटाने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। अन्त में भगवान का जयकार करते हुए कहते हैं कि उनके कर्मों का तथा उनकी लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और चिन्तन कर के मनुष्य पराभक्ति को प्राप्त करता है, भगवान के परमधाम को प्राप्त कर लेता है। इसलिए भगवान की लीलाओं का श्रवण अवश्य करना चाहिए। इसके साथ ही दशम स्कन्ध समाप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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