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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
84.भस्मासुर का नाश
हमारे गुरुदेव स्वामी चिन्मयानन्द जी ने इस प्रसंग का बड़ा सुन्दर अर्थ किया है। यह भस्मासुर कौन है? यह हमारी बुद्धि है। बुद्धि स्वभावतः ही विचिकित्सा करती रहती है। जो भी चीज सामने आ जाए, वह उसी का परीक्षण करने लगती है और उसे छिन्न-भिन्न कर डालती है। जैसे यह क्या है? क्यों है? कैसे है? आदि-आदि। इस प्रकार, चीर-फाड़ कर वह उस चीज को खत्म कर डालती है, यह बुद्धि का स्वभाव होता है। लेकिन, जब तक बुद्धि अन्य विषयों की ही विचिकित्सा करती रहती है, तब तक, भले ही हम उसे विद्या कहते रहें पर वह होती है अविद्या। चाहे वह कोई आविष्कार हो, या वैज्ञानिक खोज ही क्यों न हो। वेदान्त में, इस बुद्धि का हाथ स्वयं अपने ही ऊपर रखवा देते हैं। कहते हैं- यह विचार करो कि तुम कौन हो? कहाँ से आये? अभी तक, तुमने यह क्या किया है, वह क्या है इस प्रकार का बहुत विचार कर लिया है। अब जरा वेदान्त के अनुरूप ‘कोऽहम्’ विचार करो। तुम कौन हो यह विचार करो। बुद्धि को स्वयं की ओर मोड़ दो। जब हमारी बुद्धि कोऽहम् विचार करने लगती है, तब वह स्वयं तो खत्म हो जाती है, केवल शुद्ध अहम अथवा भगवान ही शेष रह जाते हैं। ऐसा सुन्दर अर्थ बताया है परम पूज्य स्वामी जी ने। तो, जरा स्वयं अपने ऊपर हाथ रख लो!
मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ? जब इस प्रकार के विचार होने लगते हैं, तब अहंकार की वृत्ति गिर जाती है यानी नष्ट हो जाती है। जब अहंकार का नाश हो जाता है, तब हमारा सत चित स्वरूप प्रकट हो जाता है। यह बड़ी सुन्दर बात यहाँ बतायी गयी है। इसके बाद एक बड़ा ही रोचक प्रसंग आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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