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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
77.भगवान श्रीकृष्ण की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार
अरे भाई, थोड़ा सोचो, जब हम कहते हैं कि यह मेरा मित्र है और यह मेरा शत्रु है, तो वे दोनों मेरे ही होते हैं कि नहीं? कभी आपने ध्यान दिया इस बात पर? अब, मित्र को हम अपना कहते हैं। लेकिन साथ ही शत्रु को भी तो अपना ही कहते है न? अपनी चीज से हर किसी को प्यार होता ही है। इस प्रकार से देखें तो भी, जब कभी हम अपने शत्रु से लड़ाई-झगड़ा करते हैं, तो वास्तव में अपने साथ ही तो लड़ाई कर रहे होते हैं। वह कैसे? जरा सोचो, शत्रु भी किसने बनाया? हमने ही बनाया। हम स्वयं एक शत्रु को खड़ा करके फिर उसके साथ लड़ाई-झगड़ा करने लगते हैं। यह सब अपने ही मन की कल्पना है। हम जबर्दस्ती भेद खड़ा कर लेते हैं। सोचना यह चाहिए कि हम जो द्वेष कर रहे हैं वह किसके साथ कर रहे हैं? कोई व्यक्ति दूसरे के साथ द्वेष कर ही नहीं सकता। अपने ही मन की कल्पना का द्वेष हम दूसरे के ऊपर डालते हैं और फिर उससे लड़ाई करने लग जाते हैं। वास्तव में, तब हम स्वयं अपने ही साथ लड़ रहे होते हैं। यह बड़े रहस्य की बात है। जल्दी से समझ में नहीं आती। परन्तु जब समझ में आती है, तब हमारा झगड़ा समाप्त हो जाता है। कहना बस इतना ही है कि हम व्यर्थ की लड़ाई कर रहे हैं, स्वयं अपने साथ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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