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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
46.कुवलयापीड़ का उद्धार
जब भगवान रामचन्द्र जी यज्ञशाला में पहुँचे, तो वहाँ जितने लोग बैठे थे उन सब ने रामचन्द्र जी को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा, माने वे उन्हें अलग-अलग रूपों में प्रतीत हो रहे थे। यहाँ पर भी देखे-
‘मल्लानां’-जो बड़े-बड़े पहलवान थे उनको लगा कि यह तो हमारा काल आ रहा है। जो दूसरे लोग थे ‘नृणां’ - उन्हें लगा ये तो नररत्न हैं। सारे मनुष्यों में इतना सुन्दर दूसरा कोई है ही नहीं। ‘स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्’ -स्त्रियों को लगा कि ये तो मूर्तिमान् कामदेव हैं। कामदेव ही यहाँ प्रकट हुए है। ‘गोपानां स्वजनो’-गोपबालों को लगा ये तो हमारे अपने ही हैं, और ‘असतां क्षितिभुजांशास्ता’- जो असत् लोग, दुष्ट राजा लोग थे, उनको लगा यह तो हमारा शासक है। ‘स्वपित्रोः शिशुः’- जो बड़ी आयु के लोग थे, उनको लगा यह तो हमारा बालक है। उनके मन में इनके प्रति अपने ही बच्चे जैसा स्नेह उमड़ने लगा। ‘मृत्युर्भोजपतेः’- कंस को लगा कि यह तो मेरी मृत्यु है। ‘विराट विदुषाम्’-विद्वान लोगों को उन्हें देखकर विराट पुरुष की याद आने लगी। ‘तत्त्वं परं योगिनां’- योगी लोगों को वे परमतत्त्व के रूप में दिखाई देने लगे। ‘वृष्णीनां परदेवतेति विदितो’- वृष्णि वंश को तो लगा ये परमदेवता हैं। परमात्मा ही यहाँ पर आये हुये हैं। इस प्रकार जैसी-जैसी जिनकी भावना थी, उसी प्रकार से भगवान उन-उन लोगों को दिखाई देने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.43.17
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