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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
40.अरिष्टासुर, केशी तथा व्योमासुर का उद्धार
इस बीच केशी जो पहले हयग्रीव नाम का असुर था, जिसने प्रलय के समय वेदों को चुरा लिया था, वह घोड़े का रूप लेकर हुँकार भरता हुआ व्रज में पहुँचता है। (और वह वेदों को छिपा देते है।) घोड़ा स्वभाव से हिनहिनाता-घोर ध्वनि करता रहता है। केशी ने भी बहुत ही जोर-जोर से हिनहिनाकर व्रज में सबके मन में भय उत्पन्न कर दिया। देखो यहाँ समझना यह है कि वेदों का अध्ययन भी भक्ति का विरोधी नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हो तो वह वास्तविक वेदार्थ का विरोध है, उसका तिरस्कार हैं। इसलिए भगवान ने इस केशी नाम के असुर का वध कर दिया। कई बार जीवन में भी, ऐसे ही न जाने कहाँ से कोई आ जाता है और कहने लगता है “मैं आपको वेद पढ़ाऊँगा।” वह वेद के वास्तविक तात्पर्य को तो छिपा देता है और वेद पढ़ाने के बहाने, हमें दूसरी ही कोई बात सिखाने लग जाता है। ऐसे आसुरी वेदवादियों से व्रजवासियों की भक्ति खण्डित न हो जाए, ऐसा सोचकर भगवान ने उसके खण्डन के मार्ग को, निमित्त को नष्ट कर दिया, उस वेद विरुद्ध मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। केशी का नाश कर दिया। तब नारदजी भगवान के पास आकर उनकी स्तुति करते हैं। कहते हैं, “केशी का वध करके आपने सबको उसके भय से मुक्त कर आनन्दित कर दिया।” फिर आगे भगवान के द्वारा होने वाले संहार तथा विशिष्ट कार्यों को भी उन्होंने कहकर सुनाया। उसके बाद भगवान से विदा लेकर वे वहाँ से चले गये। देखो, कोई-कोई व्योमासुर होते हैं। यह व्योमासुर कौन है, मालूम है? यह हमें भक्ति मार्ग से हटा कर हमारी योग समाधि, जड़ समाधि लगवा देता है, या फिर हमें शून्य में पहुँचा देता है। जो ऐसा करता हो वही व्योमासुर है। इसलिए भगवान ने व्रज में आये हुए उस व्योमासुर का वध कर दिया। अरिष्टासुर (वृषभासुर), केशी तथा व्योमासुर इन तीनों को भगवान ने मारा, इसलिए कि व्रजवासियों को निरन्तर भक्ति रस मिलता रहे। अब यह ध्यान में रखने की बात है कि भक्ति रस की पुष्टि वियोग में ज्यादा होती है। वियोग भक्ति रस को बढ़ाता है। क्योंकि वियोग में सतत स्मरण बना रहता है। इसलिए भगवान ने इन्हें पहले संयोग की रति तो दी ही, अब वियोग की रति देने जा रहे हैं। उसी से भक्ति रस पक्का होता है। जैसे, दूध को यदि कच्चा ही रखा जाए तो वह फट जाता है। जबकि तपाकर रखने पर वह बिगड़ता नहीं है। वैसे तो अभी भी हम लोग तप रहे हैं, परन्तु यह ताप संयोग रहित वियोग का ताप है। संयोग के बाद का जो वियोग होता है, उसका ताप दूसरे ही प्रकार का होता है। वह अन्तःकरण को पूर्णरूप से निष्ठावान् बना देता है। भगवान सोचते हैं, संयोग का रस तो इन सब ने चख लिया, अब जरा इन्हें वियोग के रस का अनुभव कराते हैं। इसलिए भगवान जाने की तैयारी में लग जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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