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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
35.रासलीला की प्रस्तावना
देखिये, यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपनी इन लीलाओं के द्वारा क्या दर्शा रहे हैं? इन लीलाओं के निमित्त से-ब्याज से, वे हमारा मार्ग दर्शन कर रहे हैं। अर्थात् भगवान हमें सिखा रहे हैं कि जीवन में पहले आसुरी वृत्तियों को नष्ट करना है और उसके बाद दैवी गुणों पर विजय भी प्राप्त करनी है यानी सद्गुण तथा बुद्ध्यदि का जो अभिमान हो जाता है उसे भी दूर करना है। यह रासलीला कुछ ऐसी है कि इसके विषय में यानी भगवान के साथ गोपियों का जो रास हुआ इस विषय में अधिकतर लोगों के मन में वृथा शंकाएँ आती रहती हैं। यहाँ रासलीला के बाद राजा परीक्षित ने भी प्रश्न पूछा है, श्री शुकदेव जी ने उसका उत्तर भी दिया है। लेकिन यहाँ हम पहले यह समझ लें कि रासलीला क्या होती है। देखो, आखिर हम सभी जीवों का लक्ष्य क्या है? दिन-रात हम जो काम करते हैं, उसके फलस्वरूप चाहते क्या हैं? आनन्द-परमानन्द ही तो चाहते हैं, परमानन्द का ही तो अनुभव करना चाहते हैं। हम सब जिसका अनुभव करना चाहते हैं वह रस क्या है? उपनिषदों में कहा ‘रसो वै सः’[1] रसस्वरूप-आनन्दस्वरूप वह ब्रह्म है, भगवान हैं। ‘रसग्ग्ं ह्येवायं लब्धवाऽऽनन्दी भवति’। उस रसस्वरूप ब्रह्म को, भगवान को पाकर ही सारे लोग आनन्दित होते रहते हैं। इस समय हमें जो भोजन से, वस्त्रालंकार से, नाम-रूप-यश आदि से, और अलग-अलग प्रकार की सत्ता से आनन्द मिलता है, वह वास्तव में भिन्न-भिन्न आनन्द नहीं होता। कोई साहित्य का रस जानता है, कोई नाट्य कला का रस जानता है, कोई संगीत का रस जानता है, कोई भोजन का रस जानता है, तो कोई अन्य कलाओं का रस जानता है। परन्तु सारे रसों को जानने वाले कितने होते हैं? ‘रसानां समूहः रासः।’ सारे रसों का जो समूह है, सारा-का-सारा आनन्द जहाँ पर घनीभूत, पंञ्जीभूत हो जाता है उसको कहते हैं ‘रास’। जहाँ आनन्द पृथक्-पृथक् नहीं रह जाता, जहाँ आनन्द में क्षुद्रता श्रेष्ठता आदि नहीं रह जाती, या यों कहो कि सारे-के-सारे रस जिस एक महा आनन्द में मिल जाते हैं वह आनन्द ‘रास’ कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै.उप. 2.7.2
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