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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
31.गोप-बालों द्वारा ब्राह्मणों से अन्न की याचना
भगवान की ब्राह्मणों पर कितनी कृपा है! ये ब्राह्मण यज्ञ के द्वारा जिनकी पूजा कर रहे हैं, स्वयं वे ही- भगवान उनसे माँग रहे हैं। लेकिन ये ब्राह्मण जो कर्मकाण्डी पण्डित हैं, वे इस बात को थोड़े ही जानते हैं? यज्ञ करते-करते उनकी आँखों में, बुद्धि में धुआँ-ही-धुआँ हो गया है। इसलिए उन्हें यह बात समझ में नहीं आती। पण्डित हैं न, तो उन्हें अपने पाण्डित्य का बड़ा अभिमान भी है। अग्नये स्वाहा, अग्नये इदं न मम। ब्रह्मणे स्वाहा......। तो ये लोग स्वाहा-स्वाहा करने में लगे हुए हैं कर्मकाण्डी जो ठहरे। इन कर्मठ लोगों को समझ में नहीं आता कि भगवान ने स्वयं उन्हें भेजा है। गोपबाल वहाँ जाते हैं और उनसे कहते हैं-
आप सब तो धर्मज्ञ हैं, धर्म को जानने वाले हैं। धर्म के प्रभु वहाँ बैठे हुए हैं। वे अन्न माँग रहे हैं।
भगवान ने गीता जी में कहा है कि सारे यज्ञों का भोक्ता मैं हूँ। यहाँ यज्ञ का भोक्ता स्वयं भोजन माँग रहा है लेकिन वे ब्राह्मण इस बात को नहीं समझते।
अब उनके मुख से न हाँ निकलता है, न ना। मतलब यही हुआ कि वे देना नहीं चाहते। उनके मन में शंका आती है कि कहीं ये राम-कृष्ण भगवान ही तो नहीं हैं, इसलिए वे ‘ना’ करने का साहस भी नहीं करते। लेकिन दूसरी ओर से सोचते हैं कि ये भगवान कैसे हो सकते हैं? ये तो गाय चराते रहते हैं, छोटे-छोटे बालक हैं, इस प्रकार वे दुविधा में पड़े हुए हैं। पण्डितों को शंका बहुत होती रहती है। तब वे सभी ग्वालबाल रोता-सा मुँह लिए लौट आते हैं। भगवान से पूरी बात कह कर अन्त में कहते हैं- उन्होंने कुछ नहीं दिया। भगवान ने कहा, “अच्छा अब ऐसा करो ‘मां ज्ञापयत पत्नीभयः’[4]अब उन ब्राह्मणों के पास न जा कर ब्रह्मण-पत्नियों के पास जाओ और उनसे माँगो। कहना तुमको हमने भेजा है।” ब्राह्मण-पत्नियाँ भगवद्भक्त थीं। उनको जब पता लगा कि बलराम जी तथा श्रीकृष्ण वहाँ बैठे हैं, तो वे भोजन लेकर वहाँ पहुँच जाती हैं। उनमें प्रेम हैं, भक्ति है, लेकिन फिर भी अभी वे धर्म के बन्धन में पड़ी हुई हैं। इसीलिए उनमें अभी वैसा प्रेम नहीं था जैसा गोपियों का था। लेकिन फिर भी प्रेम है, भक्ति भी है। वे वहाँ आती हैं, उनको भोजन अर्पित करती हैं। भगवान उनका परीक्षण करते हुए कहते हैं, “आप मुझे देखने के लिए आयी थीं, सो आपने मुझे देख लिया। अब आप लोग वापस जाइये। वहाँ आपके पति आपको ढूँढ रहे होंगे। जाकर उन्हें प्रसन्न कीजिये।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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