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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.सूत जी के उत्तर
देखिए, हम लोग ऐसे हैं कि हमारी भक्ति प्रतिहत हो जाती है। जरा-सा कुछ इधर-उधर हुआ तो हमारी भक्ति भाग जाती है। लेकिन भक्ति ऐसी हो कि जिसमें किसी प्रकार का कोई स्वार्थ नहीं, कोई हेतु नही, जैसे हमारा स्वयं अपने आप से प्रेम होता है। जरा बताओ, किसी कारण से हम स्वयं अपने आपसे प्रेम करते हैं क्या? भले ही दूसरों को हमसे प्रेम करने जैसी कोई बात हममें दिखाई नहीं देती। वे कहते हैं- तुममें कोई ऐसी अच्छी बात तो दिखाई देती नहीं कि जिसके कारण तुमसे प्रेम किया जाए। लेकिन हमारा स्वयं से जो प्रेम है, वह किसी कारण से है क्या? नहीं। मैं बहुत सुन्दर हूँ इसलिए प्रिय हूँ? अरे भाई, सुन्दर तो मैं अपने आप को मानता रहता हूँ चाहे जितना कुरूप क्यों न होऊँ। तो हमारा अपने ऊपर जो प्रेम है, वह किसी कारण से नहीं है। दूसरी बात, स्वयं से हमारा जो प्रेम है, वह कभी नष्ट भी नही होता, अप्रतिहत रहता है। ऐसा परम प्रेम जब परमात्मा के लिए होता है तब वह सबके लिए कल्याणकारी होता है।
यदि भगवान् से शुद्ध, वास्तविक प्रेम हो जाए तो ज्ञान-वैराग्य अपने आप आ जाएँगे, भक्ति उन्हें बढ़ाती है, पुष्ट करती है। भाई, बात सच है। देखिये, जिस वस्तु का आपको ज्ञान है उससे आपको प्रेम हो ही , यह कोई आवश्यक है क्या? मच्छर को आप जानते हैं, खटमल को आप जानते हैं, उससे बहुत प्रेम है क्या? बोले, उसी कारण रातभर मैं सो नहीं सका। तो हम जिन-जिन वस्तुओं को जानते हैं, जिन व्यक्तियों को जानते हें, उन सबसे हमारा प्रेम हो यह कोई जरूरी नहीं होता। लेकिन जिससे प्रेम होता है उसके बारे में हम अधिक-से -अधिक जानना चाहते हैं कि नहीं ? हम उसके पास जाना चाहते हैं, उसके बारे में सभी कुछ जानना चाहते हैं। यही भी देखा जाता है कि जब हमारा प्रेम शुद्ध नहीं होता, तब जीवन में वैराग्य आदि नहीं आते। जिस चीज़ से शुद्ध प्रेम होता है उसका ज्ञान हम जरूर प्राप्त करते है उस चीज़ के लिए दूसरी चीज़ें छोड़नी पड़ें, तो छोड़ने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। बोले यह भक्ति की महिमा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.2.7
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