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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
16.मृद्भक्षण-लीला
भगवान ने सोचा मेरे चरणों की धूलि की सब लोग तारीफ करते हैं। कहते हैं यह व्रज की भूमि है, भगवान इस पर नंगे पैर चले हैं, अतः यह उनके चरणों की धूलि है। अब यह मुझे कैसे मिले? इसका स्वाद कैसा है मैं देखूँ तो सही। इस प्रकार तीसरी बात यह हुई कि सब भक्त लोग प्रशंसा करते हैं, इसलिये स्वयं उसका स्वाद चखने के लिए भगवान ने मिट्टी खाई। या फिर भगवान के पेट में सारा ब्रह्माण्ड है। सारे जीव भी वहीं है। वे सभी जीव सोचते हैं- यह व्रज की धूल वहाँ के लोगों को तो मिल रही है, परन्तु हमको कैसे मिलेगी? भगवान ने कहा ऐसी बात है तो मैं थोड़ी-सी खा लेता हूँ, तुम सब को मिल जायेगी। सब को खिलाने के लिए भगवान ने थोड़ी-सी खा ली। पृथ्वी का एक नाम है ‘क्षमा’। भगवान को लगा, अब बड़ा होकर मुझे इन बाल-गोपालों के साथ बाल-लीला करनी हैं। हम सब खेला करेंगे। उनको तो पता नहीं रहेगा कि मैं कौन हूँ। इसलिए मेरे बड़प्पन का ध्यान भी नहीं रहेगा। मुझे कोई मारेगा, पीटेगा, गाली भी देगा, मेरे प्रति अपराध भी कर सकता हैं तब मुझे उनको क्षमा करना आना चाहिए। ये सारे लोग मेरे साथ जैसा भी व्यवहार करें, उन्हें क्षमा करने की शक्ति मुझमें होनी चाहिए। इसलिए पृथ्वी का थोड़ा सा अंश खाकर मैं क्षमा गुण को धारण करूँगा, जिससे कि कोई जब कुछ अनुचित करें, तो उन्हें क्षमा कर सकूँगा। इसलिये भगवान सबको क्षमा करते रहते हैं। या फिर, छोटे बच्चे मिट्टी खाते रहते हैं, बस बात खत्म हो गई। इतनी कारण मीमांसा करने की क्या जरूरत है? क्यों खाई? उनका मन हुआ तो खा लिया, तुम कौन होते हो मना करने वाले? सीधी-सी बात है कि यह लीला बाल सुलभ है। सब बच्चे मिट्टी खाते हैं। भगवान ने कहा-सब बच्चे खाते हैं तो मैं क्यों नहीं खाऊँ? तो उन्होंने भी खा ली, इसमें ज्यादा तर्क-वितर्क करने की क्या जरूरत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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