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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.वर्णाश्रम-धर्म
पिता जी पान-सुपारी खाते रहेंगे और छोटा बच्चा खाए तो कहेंगे, ”बच्चे सुपारी नहीं खाते।“ मानें? बड़े खा सकते हैं, ऐसा ही अर्थ हुआ न? बच्चों के लिए सुपारी अच्छी नहीं है, तो बड़ो के लिए वह अच्छी कैसे हो जाती है? छोटे बच्चों को सिगरेट पीते हुए देखते हैं तो लोगों को आश्चर्य होता है, भय-सा लगता है। परन्तु बड़ों को पीते देखते हैं तो कुछ नहीं लगता। बड़े हो जाने पर क्या सिगरेट से फेंफड़े ज्यादा शक्तिशाली हो जाते है? क्या बड़े होकर सिगरेट पी सकते हैं? देखा हमारा दिमाग कैसा हो गया है। एक विचित्र बात मैंने पढ़ी थी। पाँच साल का एक छोटा बच्चा सुबह-सुबह व्हिस्की और सिगरेट पी रहा था। एक बड़े व्यक्ति आए और उसको देखकर चौंक गए। उन्होंने पूछा, ”तुम स्कूल नहीं गए?“ वह बोला, ”स्कूल? मैं तो अभी पाँच साल का ही हूँ।“ आपको बात समझ में आई? मैं अभी पाँच साल का ही हूँ। अभी से क्या स्कूल जाना? लेकिन व्हिस्की या सिगरेट पीने में उसको आयु का भान नहीं है। यहाँ समझना यह है कि समय तथा अवस्था के अनुसार कर्तव्य तो बदलते रहते हैं, लेकिन सद्गुण नहीं बदलते। जीवन की किसी भी अवस्था में सद्गुण सदा ही सद्गुण रहते हैं। गृहस्थाश्रम में बेईमानी चल जाएगी क्या? ऐसा नहीं होता है। लेकिन न जाने क्यों हमारा दिमाग ऐसा ही हो गया है। अच्छा, यह हुआ आश्रम धर्म। एक ‘वर्ण’ धर्म भी होता है। प्रत्येक मनुष्य जब जन्म लेता है, तो वह अपने साथ विशेष प्रकार के संस्कार लेकर आता है, अपने पूर्व-पूर्व जन्मों के। उन संस्कारों के अनुसार उसका स्वभाव-वर्ण निश्चित होता है, जिसे शास्त्र की भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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