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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
सप्तम स्कन्ध
अब आता है सातवाँ स्कन्ध जो बहुत ही सुंदर है। सातवें स्कन्ध का विषय है ऊतयः - कर्म वासना। पूर्व स्कन्ध में हमने देखा पोषण, यह भगवान की कृपा है, अनुग्रह है। अब, यदि भगवान की इतनी कृपा है, और सब पर है, तो एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि तब जीव इतने दुःखी क्यों रहते हैं? देखो भगवान की कृपा तो सबके ऊपर है। परन्तु कर्मवासना अथवा ऊति के कारण ही लोग दुःखी होते रहते हैं। वे अपनी कर्मवासनाओं को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। यह वासना तीन प्रकार की होती है - दैवी वासना, आसुरी वासना और मानसी वासना। इस स्कन्ध में पंद्रह अध्याय हैं, और पाँच-पाँच अध्यायों में एक-एक प्रकार की वासना का वर्णन किया गया है। हिरण्यकशिपु की कथा के द्वारा आसुरी वासना बताई गई है। प्रह्लाद के चरित्र द्वारा दैवी वासना कैसी होती है यह दर्शाया है और उसके बाद युधिष्ठिर का व्याख्यान आता है जिसमे युधिष्ठिर और नारद के संवाद द्वारा मानवीय धर्म, मानवीय वासनाओं का वर्णन किया गया है। प्रकृति में मनुष्य, असुर और देवता आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग होते हं और उनकी वासनाएँ भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसलिए भगवान का अनुग्रह भी भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देता है। स्वयं भगवान का किसी से न राग है, न ही किसी से द्वेष। भगवान निष्पक्ष रहते हैं। लेकिन हम लोगों को ऐसा लगता रहता है कि वे जब देखो तब देवताओं का पक्ष ले रहे हैं। यही प्रश्न यहाँ पर राजा परीक्षित ने पूछा है। कहते हैं - भगवान तो सम हैं, उनको किसी से राग-द्वेष नहीं है, वे निष्पक्ष रहते हैं ऐसा कहा जाता है, फिर भगवान देवताओं का पक्ष क्यों लेते हैं, असुरों का पक्ष क्यों नहीं लेते हैं? उसका एक उत्तर यह है, जो गीताजी में बताया गया है -
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भ. गीता. 9.29
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