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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.नाम-महिमा
‘राम-राम’ बोलने से या ‘नारायण-नारायण’ बोलने से हमारे पाप कैसे कटेंगे? हमें कुछ समझ में नहीं आता। बस, बात यह है कि हमको अपने नाम पर ज्यादा भरोसा हो गया है, भगवान के नाम पर नहीं। कई बार देखा जाता है कि लोग कहते हैं, वहाँ जाओ तो मेरा नाम ले लेना। मेरा नाम बता देना। अच्छा! अपने नाम पर इतना भरोसा? देखो, हम भी जब किसी दूसरी जगह पर जाते हैं और लोग कहते हैं, ”स्वामी जी अगर हम आश्रम में आएँ और आप वहाँ नहीं हों तो?“ तो हम कहते हैं, ”कोई बात नहीं, मेरा नाम बता देना। बोल देना, स्वामी जी ने भेजा है।“ ओ हो! देखो अपने नाम पर इतना विश्वास और भगवान के नाम पर कोई विश्वास नहीं? क्यों यह दुष्टता नहीं है? यह मन की अशुद्धि नहीं तो और क्या है? जबकि सत्य तो यह है कि हमारे सभी विशिष्ट ग्रंथों में, जहाँ सत्ययुग के लिए तप-ध्यान को मोक्ष का साधन बताया गया है, त्रेता युग में यज्ञ का साधन बताया गया है, द्वापर युग में पूजा बताई गई है वहीं कलियुग में केवल नाम ही बताया गया है। कलियुग में केवल नाम स्मरण ही कहा गया है। यदि कोई विशेष प्रकार की साधना नहीं कर सकता तो बस वह नाम स्मरण करे। लोग इसका अर्थ समझते नहीं हैं। वे कहते हैं कि कठिन-कठिन साधनाओं को हम नहीं कर सकते इसलिए नाम बताया गया है, माने ये सबसे छोटी चीज है। दूसरा कुछ नहीं कर सकते तो कम-से-कम नाम ही ले लो। नाम ले लो यह आखिर में बोला गया है। इसलिए यह ज्यादा विश्वास करने जैसी चीज नहीं है। इसमें विशेष प्रभाव नहीं होगा ऐसा हमें लगता है। लेकिन इसका वास्तविक अर्थ दूसरा ही है। यही कि इस कलियुग के पाप ऐसे हैं कि यज्ञ-यागादि अन्य साधन उनको दूर नहीं कर सकते। परन्तु जिन पापों को यज्ञ-यागादि दूर नहीं कर सकते, उनको नाम दूर करता है। ऐसा कहने पर कोई कह सकता है - आप बोलते रहते हो महाराज, क्योंकि आपको रोकने वाला कोई नहीं है। जिसको दूसरे कर्म नहीं बचा सकते क्या उसको नाम बचा सकता है? इसका मतलब क्या हुआ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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