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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
षष्ठ स्कन्ध
इस नाना प्रकार के नरकों की प्राप्ति से मनुष्य अपने आपको किस प्रकार से बचा सकता है, मनुष्य पापा कर्म तो करता ही रहता है, इसलिए उन से छुटकारा पाने का कोई अच्छा उपाय आप मुझे बताइये। यह प्रसंग बहुत सुंदर है। हमारे लिए बड़े ही काम की चीज है। शुकदेव जी कहते हैं - देखो, परीक्षित अभी हम जो व्यवहार करते है, अपने पूर्व-पूर्व जन्मों की वासनाओं के वश में होकर करते हैं, उन पर आज हमारा कोई नियंत्रण नहीं है, अतः हम पाप कर्म करते रहते हैं। अच्छा, पाप कर्म कर लिया, उसके बाद कम-से-कम पश्चाताप् तो होना चाहिए। अर्थात् दुःख होना चाहिए कि मैंने कैसा कर्म किया। जैसा कि राजा परीक्षित को पश्चाताप हुआ था कि भला मैंने उस मरे हुए साँप को मुनि के गले में कैसे डाल दिया? मुझे इसके लिए कुछ दण्ड मिलना चाहिए। इस प्रकार पश्चाताप होने के बाद उस काम के लिए कोई प्रायश्चित करना चाहिए। ‘प्रायश्चित’ का अर्थ होता है - ‘प्रायः’ माने तप करना और ‘चित्त’ माने संकल्प करना। पूर्व में जो गलत काम किया उसके लिए स्वयं को दण्ड देना और अपनी शुद्धि करने के लिए यह संकल्प करना कि फिर से ऐसा कर्म नहीं करूँगा। सिर्फ स्वीकार करना, इतना ही पर्याप्त नहीं। लोग स्वीकार करते हैं और उसके बाद फिर वही कर्म करते हैं। भगवान शुकदेव जी कहते हैं कि प्रायश्चित करना चाहिए। इसीलिए हमारे शास्त्रों में कुछ कर्म ऐसे बताए गए हैं जो मनुष्य को हर रोज करने चाहिए। क्योंकि संभव है हमसे पाप-कर्म होते जा रहे हों और हमें पता भी न हो। जान बूझकर करना तो गलत है ही, कभी अनजाने में हो जाए तो उसके लिए भी प्रायश्चित करना चाहिए। वह प्रायश्चित कैसा होता है? तो कहा - जैसे रोग के लिए दवाई होती है। जैसा रोग हो वैसी दवाई, उसी प्रकार प्रायश्चित भी छोटा-बड़ा होता है। उसको कर लेना चाहिए। अब यदि कोई मनुष्य पाप कर्म तो करता रहे परन्तु उसे न तो कोई पश्चाताप् ही हो और न ही वह कोई प्रायश्चित कर्म करे, तब तो उसकी दुर्गति निश्चित है। तब राजा ने कहा, ”भगवान आपने उत्तर तो दिया, लेकिन हमको संतोष नहीं हो रहा है, क्योंकि देखा यही जाता है कि लोग प्रायश्चित तो कर लेते हैं, लेकिन बाद में फिर-से वही पाप कर्म करते हैं। वही-का-वही पाप कर्म पुनः करते हैं।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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