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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
11.विभिन्न नरकों व उनकी गतियों का वर्णन
जब पुण्य कर्म बढ़ जाते हैं, तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म अधिक हो जाते हैं तो नरक में जाना पड़ता है। अन्ततः जब पाप-पुण्य बराबर रह जाते हैं तो मनुष्य लोक की प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है कि यह मानव योनि मिश्रित कर्मों का फल है। नरक लोक कपड़ों की धुलाई करने की मशीन जैसा है। यहाँ पर पाप का फल (दण्ड) पाने के बाद जीव शुद्ध होने लगता है। इस पर प्रश्न उठता है कि यदि पाप-पुण्य समान होने पर मनुष्य जन्म मिलता है, तो सब के सुख-दुःख में समानता क्यों नहीं दिखती, उसमें भेद कैसे हो जाता है? बोले पाप-पुण्य का परिमाण समान होते हुए भी उसके स्वरूप में भेद हो सकता है। होता ही है। अब जैसे, कोई एक किलो कपास तौल रहा हो, तो दोनों का वजन समान होते हुए भी एक किलो का भार देखनें में बहुत छोटा-सा दीखता है, और कपास का ढेर-सा लग जाता है। दोनों का वजन समान होते हुए भी कपास का गुण लौहे के गुण से भिन्न ही होता है। है न? तो इसी प्रकार अनुपात में, मात्रा में पाप-पुण्य समान होते हुए भी उनके स्वरूप अलग-अलग होते हैं, इसलिए सुख-दुःख में भी नाना प्रकार के विभेद दीखते हैं। यह तथ्य सारे शास्त्रों के द्वारा ज्ञात होता है। फिर कहते हैं -
भूगोल-खगोल का इतना व्यापक वर्णन इसलिए किया गया है कि यह सब भगवान का स्थूल रूप है। पहले इसमें अपने मन को स्थिर कर के उसे सूक्ष्म तथा शुद्ध बनाना चाहिए। और फिर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम में जाना चाहिए और अन्ततः सूक्ष्मतम से निर्विशेष निर्गुण स्वरूप में पहुँचना है। इस प्रसंग के साथ ही पाँचवाँ स्कन्ध समाप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.26.39
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