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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.दक्ष यज्ञ में सती जी का आत्म दहन
देखो, एक बार हमारे मन में कोई इच्छा जग जाती है, तो सही बात भी समझ में नहीं आती। सती जी को भी बात समझ में नहीं आई। अपने बन्धुओं से मिलने की इच्छा उनके मन में जग गई थी। अब उसके पूर्ण न होने की संभावना से पहले तो उनकी आँखें अश्रुओं से भर गईं, उनका श्वास तेज गति से चलने लगा। और फिर इस शोक के बाद, अब उन्हें शंकर जी पर इतना क्रोध आया कि उन्हें इस प्रकार देखने लगीं मानो उन्हें अपनी आँखों से भस्म कर डालना चाहती हों। अपनी इच्छा पूर्ति में जब कोई विघ्न आता है तो देखो कैसी मनोदशा हो जाती है। फिर वे कहती हैं ”आपको नहीं जाना हो तो मत जाइए लेकिन मैं तो जाऊँगी।“ शिवजी ने कहा, ”जैसी तुम्हारी इच्छा।“ शिवजी को तो उनमें भी कोई आसक्ति नहीं थी। वे वहाँ रहें या न रहें इससे उन्हें क्या अन्तर पड़ता है? सती कहती है, ”मैं तो जा रही हूँ“ और वे वहाँ से चल पड़ीं। जब नन्दी भगवान ने देखा कि हमारी स्वामिनी अकेली जा रहीं हैं, तो वे भी अन्य साथियों को लेकर उनके साथ चल पड़े। तो ऊपर छाता है, सती जी का तोता है, उनके संगीत के वाद्य आदि हैं और सती जी जा रही हैं। सारे-के-सारे शिवगण भी उनके साथ हैं। उन सबके साथ सती जी यज्ञशाला पहुँचती हैं। वहाँ दक्ष ने तो उनकी बड़ी अवहेलना की। सती के प्रति उनके पिताजी का रुख देखकर, वहाँ उनसे मिलने का किसी और ने साहस नहीं किया और न ही किसी ने उनका आदर सत्कार ही किया। केवल उनकी माँ अवश्य उनसे प्यार से मिलती हैं, दूसरा कोई उनसे बात भी नहीं करता। फिर सती जी ने देखा कि वहाँ यज्ञ मण्डप में सभी देवताओं के लिए स्थान है, लेकिन शिवजी के लिए कोई यज्ञ-भाग नहीं रखा गया है। अब देखो, जब वे पति के पास थीं, तब उनके हृदय में पितृ-प्रेम उमड़ रहा था और अब पिता के पास जाकर वहाँ की स्थिति देखती हैं, तो पति-प्रेम उमड़ आया है। वास्तव में उनका पति प्रेम ही सच्चा था। उन्हें वह बात याद आयी जो शिवजी ने पहले ही कह दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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