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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.दक्ष प्रजापति व शिवजी का वैमनस्य
भगवान शिवजी शान्त बैठे थे। बोले - बच्चा है, ऐसे ही कुछ-कुछ बोलता रहता है, उस पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भगवान का ऐसा अपमान होते देखा, तो भगवान के वाहन नन्दी को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा - ‘मेरे स्वामी को शाप देने वाला यह होता कौन है?’ फिर नन्दी ने भी दक्ष को शाप दे दिया ‘दक्षाय शांप विससर्ज दारुणं’ - बोले हमारे शिवजी तो अद्वैत तत्त्व में रमे हुए भगवान हैं। उसमें यह दक्ष दोष देखता है। अरे! जो गृहस्थी में, स्त्री में रमा हुआ है, भोग में रमा हुआ है, वह भला शिवजी को क्या जाने, कैसे समझे? इसकी बुद्धि बिगड़ गयी है। बहुत मैं-मैं करता रहता है अतः इसका सिर और मुँह बकरे का हो जाए! नन्दी ने जब ऐसा शाप दिया तो वहाँ पर जो भृगु़ऋषि थे, उनको भी बड़ा क्रोध आया। वे भी कुछ-कुछ प्रवृत्ति मार्ग गामी ही थे, दक्ष के पक्ष वाले थे। तो भृगु ऋषि ने शिवजी के गणों को तथा अनुचरों को शाप दे दिया कि तुम सब भी अमंगल रूप हो जाओ, नग्न-भग्न होकर घूमते रहो, जगत में तुम सबको कोई सम्मान न मिले। तुम सब को बिना किसी ठिकाने के जगत में भटकते रहना पडेगा। उन्होंने ऐसा शाप दे दिया और कहा कि शिव दीक्षा लेने वाले भी सब इसी प्रकार के हो जाएँ।
दक्ष ने शिवजी को शाप दिया, नन्दी ने दक्ष को शाप दिया और नन्दी को भृगुऋषि ने शाप दिया। इस प्रकार वहाँ पर शापाशापी होने लगी। झगड़ा होने लगा। यहाँ इस प्रसंग से यही दर्शाया गया है कि कभी-कभी हम कितने ही बड़े पद पर क्यों न पहुँच जाएँ, जैसे दक्ष पहुँच गया था, तब भी हमारी बुद्धि छोटी ही रह जाती है। एक ने झगड़ा किया, दूसरे ने बात बढ़ाई। तो तीसरा भी प्रारंभ हो गया। ऐसी इनकी शापाशापी होती रही और दुर्भाग्य से सब-के-सब शक्तिशाली थे, अतः उन सबका शाप असर करने लगा। इस घटना क्रम से कुछ खिन्न-से होकर शंकर भगवान भी अपने अनुचरों सहित वहाँ से चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.2.29
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