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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.कपिल भगवान से माता देवहूति का ज्ञानार्जन
‘तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम्’ जिसने तीव्र भक्ति योग के द्वारा मन को भगवान में स्थिर कर लिया, उसी ने जीवन में परम कल्याण को प्राप्त कर लिया। इसके बाद भगवान कहते हैं अब मैं तुमको तत्त्व का लक्षण बताता हूँ। हम पहले ही सृष्टि के तत्त्व का लक्षण देख चुके हैं। भगवान से अव्यक्त, अव्यक्त से महत् तत्त्व, महत् तत्त्व से पान्चभौतिक सृष्टि प्रकट होती है। इसका विस्तृत वर्णन भगवान आगे तत्त्व विचार में करते हैं। उस तत्त्व विचार का वर्णन भी भगवान के स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही है। उसके बाद कहते हैं - एक है प्रकृति और एक है पुरुष। यहाँ भगवान कपिल देव जी ने प्रकृति-पुरुष का जो विवेचन किया है उसे सांख्य शास्त्र कहा गया है। लेकिन ध्यान में रखना, सांख्य के नाम से प्रसिद्ध जो कपिल मुनि का दर्शन है वह निरीश्वर वादी है, वह इससे पृथक् है। यहाँ पर तो भगवान की भक्ति का ही विस्तृत वर्णन है। वह दूसरा सांख्य तो षट्दर्शनों में गिना जाने वाला सांख्य शास्त्र है। उसके प्रणेता जो कपिल मुनि हुये, वे दूसरे हैं। यहाँ देवहूति के पुत्र रूप में आये हुए कपिल जी तो साक्षात् भगवान के अवतार हैं, महामुनि हैं। वे भगवद् भक्ति का भी वर्णन करते हैं और प्रकृति-पुरुष का विवेचन भी करते हैं। उन्होंने कहा जो चेतन तत्त्व दिखाई दे रहा है वह पुरुष है और जो जड़ तत्त्व दिखाई दे रहा है वह सब-का-सब प्रकृति हे। वास्तव में तो जो जड़ प्रकृति दिखाई देती है वह भी चेतन से अलग - स्वतंत्र नहीं है। लेकिन अभी हमको भ्रम हो गया है। इसलिए हमें लगता है कि जड़ प्रकृति चेतन तत्त्व से पृथक् है, उसी की बनी ये सारी उपाधियाँ हैं और वही मैं हूँ। ऐसा हमने मान लिया है। जगत का निर्माण तो होता है प्रकृति से, लेकिन वह पुरुष की उपस्थिति में ही होता है। पुरुष सदा ही असंग है। वह कभी भी प्रकृति से बंधता नहीं। लेकिन इस समय हमें यही लग रहा है कि वह बंध गया है। यह बंधन कैसा है? अपने देह को ही ‘यह मैं हूँ’ ऐसा हमने मान लिया और जो आदमी देह को ही ‘यह मैं हूँ, ऐसा मान लेता है, वह विषयों के बंधन में आता ही रहता है, क्योंकि वह कल्पना कर लेता है कि विषयों में बड़ा सुख है। कैसे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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