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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.कपिल भगवान से माता देवहूति का ज्ञानार्जन
क्योंकि साधु लोग हमारी विषयासक्ति को दूर कर देते हैं। इसलिए दूसरे स्कन्ध के प्रारम्भ में ही यह साधन मार्ग बताया गया था। यहाँ पर हम जरा भागवत की जो विषय प्रणाली है उसको संक्षेप में देख लेते हैं। देखो, कभी-कभी ग्रंथ बहुत बड़ा हो सकता है लेकिन सारी कथाएँ, सारा विवेचन मुख्य विषय के आसपास ही घूमता रहता है। तो भागवत शास्त्र भक्ति शास्त्र है। इसका सार क्या है? बोले हमारा जो धर्म है, कर्म है, उपासना है, योगाभ्यास है, ज्ञान है, वह सब ठीक है, लेकिन इन सब का पर्यवसान, इन सबकी समाप्ति भगवान की दृढ़ भक्ति, दृढ़ प्रेम में होनी चाहिए। तो एक सिद्धान्त यह है कि भगवान के लिए हमारे मन में शुद्ध, दृढ़ अनुराग उत्पन्न हो जाए। और दूसरी ओर विषयों से वैराग्य हो जाए। विषयों से हट कर हमारा मन भगवान में स्थिर हो जाए। इसी के लिए यहाँ पर यह सारा-का-सारा वर्णन किया जा रहा है। ज्ञान की भाषा में कहेंगे कि मन को विषयों से हटा कर आत्म स्वरूप में स्थित करो। वहाँ आत्म स्थिति की बात की जाती है, केवल स्थिति की बात नहीं। ‘स्थिति’ शब्द में हमको लगता है जैसे सब कुछ स्थिर हो जाता है। इसीलिये बहुत से लोगों को ऐसा लगता है कि समाधि में मन ऐसा हो जाएगा, फिर क्या होगा? लेकिन भक्ति शास्त्र में कहते हैं, हमारा जो मन है उसे विषयों से हटा कर भगवान में लगाओ। भक्ति से मन भगवान में रम जाता है। मधुसूदन सरस्वती जी ने भक्ति रसायन में ‘स्थिति’ और ‘रति’ का सुन्दर विवेचन किया है। केवल परमात्मा में स्थिति को भक्ति नहीं कहते। परमात्म स्वरूप में जो रति है उसको भक्ति कहते हैं। वह तो रस का स्वाद है। तो एक ओर भगवद्भक्ति और दूसरी ओर विषयों से विरक्ति होनी चाहिए। भागवत में यही उपदेश बार-बार आता रहता है। इसलिये पहले मनुष्य जन्म की दुर्लभता बताते हैं, और फिर कहते हैं इसी दुर्लभ जन्म में भक्ति प्राप्त की जा सकती है, अतः उसी को प्राप्त करें। व्यर्थ की चीजों में अपना समय न गँवाएँ ऐसा यहाँ पर कहा गया है। इसलिए अध्यात्म योग हमें बताता है कि तुम सत्संग करो। सत्संग से ही ये सारी बाते समझ में आने लग जाएँगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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