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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.जय-विजय को आसुरी योनि की प्राप्ति
जाओ, तुम दोनों राक्षस बन कर नीचे गिर पड़ो। तुम वैकुण्ठ में रहने लायक नहीं हो। वैकुण्ठ में तो उसी की गति होती है जो माया से मुक्त होता है। अहंकार हो जाना तो माया का लक्षण है। इसीलिए जब नारदजी को भी मोह हो गया था कि मैंने काम को जीत लिया, मन को जीत लिया, तो वे भी कैसे गिर पड़ें थे। यह तो होता ही रहता है। अब वे दोनों घबरा गए क्योंकि सनत्कुमार जैसे ऋषियों का शाप तो बड़ा भारी शाप होता है ऐसा नहीं होता है कि कभी लगा, कभी नहीं लगा। (एक बार मैने एक आदमी को शाप दिया कि तुम नरक में जाओं। वह आदमी बोला मैं आपको वही पर मिलूँगा! हमारे शाप से कुछ नही होता। ) ये जो सनत्कुमार हैं, उनका शाप बहुत प्रबल होता है। वे समझ गए कि अब हम शीघ्र ही राक्षस बन जाएँगे। अतः क्षमा माँगने लगे। भगवान विष्णु ने यह सब शोर-गुल सुना तो वे बाहर आ गये। जैसे ही विष्णु भगवान को देखा तो जय-विजय भी घबराने लगे और सनत्कुमारों को भी बुरा लगने लगा। सनत्कुमारों को लगा कि इनसे गलती हो गयी, वह तो ठीक है, लेकिन हमको क्या अधिकार था कि इनको यहाँ से निकाल दें। यह तो ऐसा हुआ जैसे कोई प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर जाये और वहाँ पर कोई सेक्रेटरी उसे रोके, तो व उस सेक्रेटरी को बरखास्त कर दे। अरे भाई प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर वह सचिव है। उसे बरखास्त करने का तुम्हें क्या अधिकार है, यदि किसी को कोई शिकायत हो तो, प्राधानमंत्री से कहना चाहिए कि ऐसा-ऐसा है। तो सनत्कुमारों को लगा हमसे बड़ी गलती हो गयी। हमें तो सिर्फ भगवान से कहना चाहिए था। उस पर क्या करना कहना है, यह तो फिर भगवान सोचते। अब वे भगवान को प्रणाम करके क्षमा माँगने लगे। भगवान का शील देखो, सनत्कुमारों से कहते हैं, आपके जैसे ब्राह्मण देवता यहाँ पर पधारे। आप तो मेरे लिए भगवान हैं। जगत में लोग मेरी पूजा करते हैं, लेकिन मैं तो ब्राह्मण की पूजा करता हूँ। मैं ब्राह्मण के मुख से खाता हूँ। आपको कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। यदि मेरा यह हाथ भी आपको कष्ट पहुँचाता हो तो मैं। इसे भी काटकर फेंक दूँगा! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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