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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.विदुर जी तथा मैत्रेय ऋषि का संवाद
जो भगवान कर्णद्वार से हृदय में प्रवेश करके, मन के मैल को दूर कर डालते हैं, प्रेम उत्पन्न करते हैं, भला उनकी कथा से किसे वैराग्य होगा? कौन उस कथा को सुनना नहीं चाहेगा? आप मुझे उनकी सब बातें अताइये। यह सुनकर मैत्रेय ऋषि को बड़ा आनन्द हुआ। अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वे कहते हैं, ‘‘तुमने ऐसा सुंदर प्रश्न पूछा है कि इससे भगवान का यश चतुर्दिक - सब ओर फैल जाएगा। इसीलिए भगवान से भी उनके भक्त महान होते हैं, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। भगवान चन्दन के पेड़ के समान हैं, तो भक्त वायु के समान हैं- चन्दन तरु हरि संत समीरा।[1]। वायु बहती है तो चन्दन की सुगन्ध सब ओर फैला देती है। भक्त भी भगवान के यश को सब ओर फैला देते हैं। आप भी ऐसे भक्तों में ही हैं।’’ आगे सृष्टि का वर्णन आता है। अन्य देवताओं में यह शक्ति नहीं थी कि वे स्वयं आगे कुछ काम कर सकें। इसलिए वे भगवान से प्रार्थना करते हैं, कि भगवान हम कुछ करना तो चाहते हैं, लेकिन कर नहीं पाते। तब भगवान अपनी कालशक्ति को प्रेरित कर इन देवताओं को भी सामर्थ्य प्रदान करते हैं, जिससे कि वे आगे की सृष्टि का निर्माण कार्य कर सकें।
भगवान की इस शक्ति का - माया शक्ति का वर्णन कौन कर सकता है? इस प्रकार वर्णन करते हुए अब उन्होंने बड़ी विचित्र बात कहीं-
भगवान की माया सबको मोहित करती है। अपनी माया की गति को स्वयं भगवान भी नहीं जानते। अब ऐसी बात सुनने पर वह बड़ी विचित्र लगती है। भगवान की माया बड़े-बड़े लोगों को मोहित कर देती है, यह बात तो समझ में आती है लेकिन यहाँ तो कहा कि अपनी ही माया की गति को भगवान भी नही जानते। तो क्या इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान अज्ञानी हैं? ऐसा अर्थ नहीं लगाना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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