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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.विराट का ध्यान
भगवान के विराट रूप में मन को लगाने का अर्थ है ‘मैं भगवान का ही अंश हूँ’ ऐसे समझना। जैसे, एक उँगली को कहा जाए क तुम शरीर का ध्यान करो तो इसका क्या तात्पर्य हुआ? उँगली को यह समझना चाहिए कि वह शरीर का ही एक भाग है। अगर काटकर उसे अलग कर दिया जाए, तो वह अशुभ हो जायेगी। नाखून भी जब तक उँगली से लगे रहते हैं तब तक (कुछ लोगों को) कितने अच्छे लगते हैं। परन्तु टूटकर यदि वे खाने में आ जाएँ तो? हम भी जब तक भगवान से जुड़े रहते हैं, तब तक शिवस्वरूप होते हैं, और जैसे ही अलग हो जाते हैं तो शव कहलाते हैं, मर जाते हैं, अशुभ हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है कि भगवान के साथ एकरूप हो जाओ। तब मन भी शुद्ध हो जाएगा।
साधक जब अपने इस छोटे से देह की आसक्ति से ऊपर उठ जाता है, तो उसका मन शुद्ध हो जाता है और जब मन शुद्ध हो जाता है तो अपना जो निर्गुण स्वरूप है, सच्चिदानन्द स्वरूप है, अपना जो निर्विशेष मूलस्वरूप है, उसका बोध हो जाता है। इसलिए यहाँ कहा - ‘तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत‘ सच्चिदानन्द का भजन करो। किसी ऐसी चीज़ में या स्थान पर न अटको जहाँ से गिरना पड़े। आगे कहते हैं, ब्रह्माजी ने भी इसी रूप का ध्यान किया था। उन्होंने जब सृष्टि बनाने का विचार किया, तो उनको कुछ सूझ नहीं रहा था। अतः उन्होंने भगवान का ध्यान किया तो भगवान प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को ज्ञान दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.1.39
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