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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
63.स्यमन्तक मणि की कथा
इसके बाद, स्यमन्तक मणि का प्रसंग आता है। स्यमन्तक मणि सत्राजित् नाम के एक व्यक्ति के पास थी। उस मणि की विशेषता यह थी कि वह रोज आठ भार सोना देती थी। इसी कारण से उस पर बहुतों की नज़र थी। भगवान ने सत्राजित से कहा था कि ऐसी विशिष्ट मणि किसी व्यक्ति के पास नहीं होनी चाहिए। इसे तुम राजा उग्रसेन को दे दो। भगवान चाहते थे कि उससे लोगों का कल्याण हो। ऐसी सम्पत्ति किसी एक व्यक्ति के पास रह जाये, तो वह अपनी ही धनराशि बढ़ाने में लगा रहेगा। उससे लोगों का तो कोई उपकार होगा नहीं। इसी विचार से भगवान ने सत्राजित् से कहा था कि इसे लोक कल्याण के लिए छोड़ दो। लेकिन उसने भगवान की बात नहीं मानी थी। अब हुआ यह कि एक दिन सत्राजित् का भाई प्रसेन, उस मणि को पहन कर जंगल में चला गया। वहाँ एक शेर ने उसे मार कर वह मणि ले ली। फिर शेर से जाम्बवान् ने ले ली। उधर सत्राजित् ने यही मान लिया कि श्रीकृष्ण ने ही प्रसेन को मार कर वह मणि चुरा ली है। बलराम जी को भी शंका हो गयी कि कहीं श्रीकृष्ण ने उस मणि को चुरा न लिया हो। भगवान के ऊपर भी चोरी का कलंक लगा, लेकिन भगवान ने उसे कलंक को धो डाला। उसे मिथ्या सिद्ध कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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