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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
12.बलि की सत्यसन्धता
वैसे तो गुरु का वचन बहुत बड़ा माना जाता है, लेकिन यहाँ पर राजा बलि गुरु के वचन को नहीं मानते। उन्होंने देखा कि इस समय गुरु का वचन भी अधर्मयुक्त है। धर्म ही बड़ा है। धर्म से बढ़कर कोई चीज नहीं है। गुरु इसीलिए होते हैं कि वे हमको धर्म की बात बताएँ। वे यदि अधर्म की बात बताएँ तो कैसे मानी जायेगी?
गृहस्थों के लिए आपने जो धर्म बताया कि इस प्रकार का दान नहीं करना चाहिए कि जिससे अपना सारा कारोबार ही खत्म हो जाये, सो तो ठीक है। लेकिन असत्य से बढ़कर दूसरा पाप भी तो नहीं है। यह लड़का मेरे सामने खड़ा है और कहता है- मुझे तीन पैर जमीन चाहिए। अब यदि ऐसा मान लें कि बाद में यह बड़ा हो जायेगा, विराट् रूप धारण कर लेगा तो वह कल्पना ही होगी। सच बात तो यह है कि यज्ञ के समय ऐसा तेजस्वी ब्राह्मण यहाँ पर आया है और वह केवल इतनी सी चीज माँग रहा है। तो हम ऐसी कल्पना क्यों करें कि यह बड़ा हो जायेगा और मेरे साथ छल होगा? मैंने स्वयं कहा है कि तुमको जो चाहिए माँग लो, उसके बाद ही वह माँग रहा है। वचन का भी तो कुछ महत्त्व होता है। यदि वह वचन भंग करता है, तो वह इसका छल होगा। लेकिन, “तुमको जो चाहिए वह माँग लो’ कहकर फिर माँगने पर न दूँ तो मेरा वचन भंग हो जायेगा।
मैं और कुछ भी सहन करने के लिए तैयार हूँ लेकिन असत्य को नहीं। मुझे नरक में जाने से या किसी दूसरी चीज से डर नहीं लगता है, लेकिन एक ब्राह्मण को दिये गये वचन को पूरा न करने का जो पाप होगा उससे मुझे डर लगता है। इसलिए मैंने यह निश्चय कर लिया है कि ये जो माँगें वह इनको देना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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