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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
13.गृहस्थों के लिये मुक्ति का मार्ग
उसे यही भाव रखना चाहिए कि भगवान मुझे बस इतना दें कि जिससे कुटुम्ब चलता रहे, मैं भी भूखा न रहूँ और जो व्यक्ति घर पर आता है, वह भी भूखा न रहे। अधिक वैभव की जरूरत नहीं है। यहाँ पर कहा है कि मनुष्य को अपने घर की सारी चीजें अतिथि सेवा में लगानी चाहिए। इसलिए कि अतिथि देवो भव अतिथि देव तुल्य होता है। आगे एक बड़ी कठिन बात कही गयी है कि घर में कोई अतिथि आए तो अपनी पत्नी को भी उसकी सेवा में लगाना चाहिए ऐसी बात सुनकर ही हमें आश्चर्य सा होता है और हम चकित रह जाते हैं। क्योंकि स्त्री में पुरुष की सर्वाधिक आसक्ति रहती है। स्त्री में स्वत्व भी ज्यादा होता है यहाँ एक बात ध्यान में रखने कि है। यह गृहस्थ से कहा गया है कि पत्नी को भी सेवा में लगना चाहिये, अतिथि से नहीं कहा गया है कि उसकी सेवा लेनी चाहिए। वास्तव में यहाँ समझने की बात इतनी है कि हमें स्वत्व छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से ‘यह मेरी स्त्री है’ इस प्रकार का स्वत्व छोड़ना चाहिए। मैं आपको अपने अनुभव की एक बात सुनाता हूँ। गाँव का नाम नहीं पूछना। उसकी जरूरत नहीं है। मैं किसी के घर गया और उनसे पूछ बैठा कि यह आपका घर है? वे बोले - नहीं आपका घर है। फिर लड़का आया तो उसे प्रणाम करने को कहकर वे बोले - यह आपका बच्चा है। फिर बच्ची आयी। ”आपकी बच्ची है।“ कहीं-कहीं बातचीत करने का यह एक तरीका होता है। फिर उनके माता-पिता आये। बोले - आपके माता-पिता हैं। लेकिन जब पत्नी आयी तो बोले, ”मेरी पत्नी है।“ यह सत्य घटना है। देखो, सब जगह पर ‘आपका’ आता है लेकिन पत्नी के साथ भी आता है क्या? इस उदाहरण से स्वत्व की बात को समझ लेना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.14.12
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