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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.नृसिंह-अवतार
चरणों में पड़े प्रह्लाद को देखा तो भगवान के क्रोध का कहीं अता-पता ही नहीं रहा। वे उसे प्यार से गोद में उठा लेते हैं। और सिर पर हाथ रखकर क्या बात कही मालूम हैं? ”बेटा, मुझे माफ कर दो यदि मुझे आने में देर हो गई हो तो। तुमको इस राक्षस ने बहुत कष्ट दिया। मुझे बहुत पहले आना चाहिए था। ‘क्षमस्व यदि में विलम्बः’ मुझे आने में बहुत देर हो गई। मैंने तुमसे बहुत प्रतीक्षा कराई। बहुत परीक्षा भी ली।“ भगवान उसके एक-एक अंग को देखने लगे कि हिरण्यकशिपु ने इसे कहाँ-कहाँ क्या-क्या कष्ट दिया है, अभी उसके कोई निशान तो नहीं बचे हैं। प्रह्लाद हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करते हैं। उन्हें नमस्कार करते हैं। उस समय भी देखो प्रह्लाद का हृदय कैसा है? वे कहते हैं, ”भगवान मैं समझ गया कि आपको किसी का धन, विद्या, ज्ञान, ऐश्वर्य, साधना आदि प्रसन्न नहीं करते। आपको तो सीधा-सादा प्रेम, सरल हृदय का प्यार ही प्रसन्न करता है और दूसरी कोई चीज आपको प्रसन्न नहीं कर सकती, यही मैं देख रहा हूँ।“
”आपके इस भयानक रूप से किसी को भले ही डर लगता हो, लेकिन मुझे जरा भी डर नहीं लगता। मुझे तो डर लगता है, दुःख होता है उन लोगों को देख-देखकर जो इस संसार चक्र में पिसे चले जा रहे हैं। अभी भी उनकी बुद्धि में यह समझ नहीं आती कि भगवान का कुछ ध्यान करें। उनका दुःख देखकर मुझे दुःख होता है। उनकी यह स्थिति देखकर मुझे भय लगता है कि इनका क्या होने वाला है। उनको यह बात क्यों समझ में नहीं आती।“
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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