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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.जय-विजय को आसुरी योनि की प्राप्ति
भगवान ने कहा- मेरा भक्त को कभी कष्ट नहीं होता। वह असुर योनि में चला जाए तो भी मैं उसका उद्धार करूँगा, उसे छोडूँगा नहीं। कितनी बढ़िया बात है! दूसरी बात यह है कि भगवान का भक्त चाहे राक्षस ही क्यो न बन जाये, तब भी वह इतना शक्तिशाली होता है कि उसकी शक्ति मनुष्य लोक के सभी लोगों से बढ़कर होती है। भगवान उसकी शक्ति को कम नहीं करते। तो ये दोनों जय-विजय राक्षस बने और भगवान भी अवतार लेकर आये। कौन-सा अवतार ? तो कहा वराह अवतार। सनत्कुमार को बहुत बुरा लगा। बोले मेरे कारण ही यह सारी गड़बड़ी हुई है। अब भगवान अवतार ले रहे हैं, तो मुझे भी अवतार लेना चाहिए। ऐसा कहते हैं कि जय-विजय जब हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष बने, तो सनत्कुमार प्रह्लाद बनकर आ गये। जब वे दोनों रावण-कुम्भकर्ण बने तो सनत्कुमार विभीषण बनकर आये, बार-बार उन दोनों को भक्ति की याद दिलाने के लिये। और जब वे शिशुपाल-वक्रदन्त आये तो सनत्कुमार नही आये। क्योंकि उनको मालूम था कि अब तो तीसरे जन्म में इनका उद्धार हो ही जाएगा। देखो, जब भगवान किसी को मारते हैं तो उनका मारना भी तरना ही होता है उसका उद्धार हो ही जाता है। लेकिन यहाँ देखो, भगवान सनत्कुमार के वचन का कितना सम्मान करते हैं। भगवान के एक बार मारने से उनकी मुक्ति नहीं होती। भगवान से मारे जाने पर भी उनको तीन बार जन्म लेना पड़ता हैं। भक्त के वचनों का भगवान इतना ज्यादा सम्मान करते हैं कि अपने नियम को भी काट डालते हैं। स्वयं अपनी बात को भी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाते लेकिन संत ने, भक्त ने कोई बात कही है, तो वह सत्य होनी चाहिए, उसकी प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए। इस प्रसंग से इतनी सारी बातें ज्ञात होती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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