विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.चतुःश्लोकी भागवत
अब जो सामने दिखाई दे रहा है, वह भी मैं ही हूँ और यह सृष्टि जब लीन हो जाती है, तब भी मैं ही रहता हूँ। ‘योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्’ जो बाकी रह जाता है वह भी मैं ही हूँ देखो, यहाँ आपको बता देते हैं- वास्तव में तो वेदान्त का ज्ञान कराने के लिए यह एक ही श्लोक पर्याप्त है।
‘अहमेवासम्’ और ‘आसमेवाग्रे’ यदि वेदान्त का ज्ञान हो, तो यह श्लोक आपके मन को मुग्ध कर देगा। इसके आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ‘अहम एवं आसम’ और ‘आसमेवाग्रे’। आत्मा ही केवल था और दूसरी कोई चीज नहीं थी। सत्तामात्र चैतन्य, चेतन, सत्ता, यह भगवान का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप, भगवान का ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म का स्वरूप दर्शाने के बाद, अब कहते हैं कि माया क्या है। नारायण भगवान जैसे गुरुदेव और ब्रह्माजी जैसे शिष्य थे, अतः चार श्लोक उनके लिए काफी थे। चार श्लोक नारदजी के लिए भी पर्याप्त थे। लेकिन नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा ‘विपुली कुरु’- इसका विस्तार करो, इसको बढ़ाओ। फिर नारदजी ने व्यासजी से यही कहा। व्यास भगवान तो इस कार्य में और भी कुशल हैं। उन्होंने विस्तार कर दिया, और शुकदेव जी से, उसे और बढ़ाने को कहा। इस विस्तार कार्य में शुकदेवजी व्यास भगवान से भी कुशल निकले। इस प्रकार यह बढ़ता चला गया। लेकिन मूल में तो केवल ये चार ही श्लोक हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |