गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 1
नन्द ने पूछा- बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सन्नन्द जी! इस व्रज से वृन्दावन कितनी दूर है? वह वन कितने कोसों में फैला हुआ है, उसका लक्षण क्या है और वहाँ कौन-सा सुख सुलभ है? यह सब बताइये। सन्नन्द बोले- बहिषत से ईषाण कोण, यदुपुर से दक्षिण और शोणपुर से पश्चिम की भूमि को ‘माथुर-मण्डल’ कहते हैं। मथुरा मण्डल के भीतर साढ़े बीस योजन विस्तृत भूभाग को मनीषी पुरुषों ने ‘दिव्य माथुर-मण्डल’ या ‘व्रज’ बताया है। एक बार मैं मथुरा पुरी में वसुदेव जी के घर ठहरा हुआ था; वहीं श्री गर्गाचार्य जी के मुख से मैंने सुना था कि तीर्थराज प्रयाग ने भी इस दिव्य मथुरा-मण्डल की पूजा की है। यों तो मथुरा-मण्डल में बहुत-से वन है किंतु उन सबसे श्रेष्ठ ‘वृन्दावन’ नामक वन है, जो परिपूर्णतम भगवान के भी मन को हरण करने वाला लीला-क्रीडा-स्थल है। वैकुण्ठ से बढ़कर दूसरा लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक ‘वृन्दावन’ ही ऐसा है, जो वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है। जहाँ ‘गोर्वधन’ नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ कालिन्दी के तट पर मंगलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननों से आवृत है; जो पशुओं के लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओं के लिये सेवन करने योग्य तथा लता कुंजों से आवृत है, उस मनोहर वन को ‘वृन्दावन’ के नाम से स्मरण किया जाता है। नन्द जी ने पूछा- सन्नन्द जी ! तीर्थ राज प्रयाग ने कब इस व्रज की पूजा की है, मैं यह जानना चाहता हूँ। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल बड़ी उत्कण्ठा है। सन्नन्द बोले- नन्दराज ! पूर्वकाल में नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान दैत्य प्रकट हुआ, जो शंखासुर नाम से प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान यज्ञेश्वर श्री हरि ने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलय के सागर में उस शखांसुर के साथ युद्ध किया। महाबली दैत्य शखं ने हरि के ऊपर शूल चलाया। किंतु साक्षात् श्रीहरि ने अपने चक्र से उस शूल के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |