गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 3
सकाम एवं निष्काम भक्ति योग का वर्णन राजा उग्रसेन ने कहा- ब्रह्मन् ! गुण और कर्म की गति आपके श्री मुख से मैं सुन चुका। सभी लोक आवागमन से युक्त हैं, यह भी भली-भाँति निश्चित हो गया। निष्काम भाव से साक्षात श्रीहरि का सेवन करने पर भक्तों को वह उत्तम धाम, जो दिव्य एवं दूसरों के लिये दुर्लभ है, मिलता है- अब मुझे यह बताइये कि भक्तियोग, जिसके प्रभाव से भक्तवत्सल भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, कितने प्रकार का है। श्रीव्यासजी बोले- द्वारकानरेश ! तुम धन्य हो ! तुम श्रीहरि के प्रेमी हो तथा भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे इष्टदेव हैं। तुमने भक्ति योग के सम्बन्ध में प्रश्न किया हैं, इससे तुम्हारी वह निर्मल बुद्धि भी धन्य है। यादव ! जिसे सुनकर संसार का संहार करने वाला घोर पापी भी शुद्ध हो जाता है, उस भक्ति योग का वर्णन विस्तारपूर्वक तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! सगुण और अनेक भेद हैं और निर्गुण का एक ही लक्षण है। देह धारियों के गुणानुसार सगुण भक्ति के विभिन्न प्रकार होते हैं। उन गुणों से युक्त तीन तरह के भक्त होते हैं। उनका वर्णन अलग-अलग सुनो। जो भेद-दृष्टि रखने वाला क्रोधी पुरुष हिंसा, दम्भ और मात्सर्य का आश्रय लेकर श्रीहरि की भक्ति करता हैं, उसे ‘तामस भक्त’ कहा गया हैं। राजन् ! जो यश, ऐश्वर्य तथा इन्द्रियों के विषयों को लक्ष्य करके यत्नपूर्वक श्रीहरि की उपासना करता है, उसकी गणना ‘राजसिक’ भक्तों में है। जो कर्मक्षय का उद्वेश्य लेकर अभेद-दृष्टि से मोक्ष के लिये भगवान विष्णु की उपासना करता है, वह भक्त ‘सात्त्विक’ कहा जाता है। महामते ! अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ये चार प्रकार के पुरुष भगवान विष्णु का भजन करते हैं। इन्होंने स्वयं अपना कल्याण कर लिया है। यों भक्ति योग के अनेक प्रकार हैं। भक्ति योग के द्वारा जो श्रीहरि का पूजन करते हैं, वे सकामी भक्त भी बड़े सुकृति-पुण्यात्मा हैं। इसी प्रकार अब निर्गुण भक्ति योग का लक्षण सुनो। जैसे गंगाजी का जल स्वाभाविक ही समुद्र की और प्रवाहित होता है, उसी प्रकार श्रवण मात्र से साक्षात परिपूर्णतम एवं सम्पूर्ण कारणों के भी कारण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति बिना ही कारण मन की गति अविच्छिन्न एवं अखण्डित रूप से प्रवाहित होने लगे, इसे ‘निर्गुण-भक्ति’ कहा गया है। मानद ! अब निर्गुण भक्तों के लक्षण सुनो। भगवान के उन भक्तों की अखण्ड भूमण्डल के राज्य, ब्रह्म के पद, इन्द्रासन, पाताल के स्वामित्व तथा योग की सिद्धियों में भी स्पृहा नहीं रहती। यादवेश्वर ! भगवदनुराग आनन्द उन पर छाया रहता है, इसलिये वे भगवान के द्वारा दिये जाने पर भी सालोक्य मुक्ति को भी कभी स्वीकार नहीं करते। दूर रहने पर जैसा प्रेम होता है, समीप आने पर वैसा नहीं होता, यह सोचकर वे निष्काम भक्त भगवान के विरह में व्याकुल रहना पसंद करते हैं, अत: सामीप्य मुक्ति की भी इच्छा नहीं करते। किन्हीं भक्तों को भगवान सारुप्य मुक्ति देते हैं, किंतु निरपेक्ष होने के कारण भक्त उसे भी स्वीकार नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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