गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
सह्यपर्वत के निकट दत्तात्रेय का दर्शन और उपदेश तथा महेन्द्र पर्वत पर परशुरामजी के द्वारा यादव सेना का सत्कार और श्रेष्ठ भक्त के स्वरूप का निरूपण श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्दतर श्रीकृष्णकुमार कामदेव स्वरूप प्रद्युम्न ऋषभ पर्वत का दर्शन करके श्रीरंग क्षेत्र में गये। फिर कांचीपुरी एवं सरिताओं में श्रेष्ठ प्राचीन का दर्शन करके, कावेरी नदी के पार जाकर सह्यगिरि के समीपवर्ती देशों में गये। भगवान प्रद्युम्न हरि के साथ यादवों की विशाल सेना भी थी। मैथिलेश्वर ! उन्होंने देखा कि उनके सैन्य-शिविर की ओर एक खुले केश वाला दिगम्बर अवधूत भागता चला आ रहा हैं। उसका शरीर हष्ट-पुष्ट है और उस पर धूल पड़ी हुई है। बालक उसके पीछे दौड़ रहे हैं और इधर-उधर तालियां पीट रहे हैं, कोलाहल करते हैं और हँसते हैं। उस अवधूत को देखकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उद्धव से बोले । प्रद्युम्न ने कहा- यह हृष्ट–पुष्ट शरीरवाला कौन पुरुष बालक, उन्मत और पिशाच की भाँति भागा आ रहा है ? यह लोगों से तिरस्कृत होने पर भी हँसता है और अत्यन्त आनन्दित है। उद्धव बोले- ये परमहंस अवधूत श्रीहरि के कलावतार साक्षात महामुनि दत्तात्रेय हैं, जो सदा आनन्दमय देखे जाते हैं। इन्ही के प्रसाद से पूर्ववर्ती उत्कृष्ट नरेश सहस्त्रार्जुन आदि तथा यदु एवं प्रह्लाद आदि ने परम सिद्धि प्राप्त की है। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर यदुकुल-तिलक प्रद्युम्न ने मुनि की पूजा और वन्दना करके दिव्य आसन पर बिठाकर उनसे प्रश्न किया । प्रद्युम्न बोले- भगवन् ! मेरे हृदय में एक संदेह है, प्रभो ! उसका नाश कीजिये। जगत का स्वरूप क्या है, ब्रह्म के मार्ग कौन हैं तथा तत्व क्या हैं ? यह सब ठीक-ठीक बताइये । दत्तात्रेय ने कहा- जब तक अन्धकार के कारण वस्तु दिखायी नहीं देती, तभी तक उल्का या मशाल की आवश्यकता होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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