गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 25
अनुशाल्व द्वारा प्रद्युम्न को उपहार सहित अश्व का अर्पण तथा बल्वल दैत्य द्वारा उस अश्व का अपहरण श्रीगर्गजी कहते हैं– उन दोनों का युद्ध देख कर यादव परस्पर कहने लगे– अनुशाल्व धन्य है। शत्रु सैनिक आपस में चर्चा करने लगे कि गद महान वीर हैं। वे सब इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि गद वहीं सचेत होकर उठे और बोल पड़े– मेरा शत्रु मुझ पर प्रहार करके रण क्षेत्र से कहाँ गया ! कहाँ गया ? -ऐसा कहकर उन्होंने अनुशाल्व को हाथ से पकड़कर रोषपूर्वक खींचा और अनिरुद्ध के निकट बड़े वेग से दे मारा। अनुशाल्व औंधे मुँह गिरा और मूर्च्छित हो गया। यह देख अनिरुद्ध ने स्वयं पानी छिड़ककर और व्यजन डुलवाकर उसे होश कराया। उसी समय असुरेश्वर अनुशाल्व मूर्च्छा से जाग उठा और अपने सामने मेघ के समान श्याम वर्ण वाले परम सुंदर श्रीकृष्ण पौत्र को देखकर उन्हें प्रणाम करके बोला– श्रीकृष्ण पौत्र अनिरुद्ध ! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, अत: मैंने जो अपराध किया है उसे क्षमा कर दें। सच्चिदानंद स्वरूप भगवान वासुदेव को नमस्कार है। संकर्षण को प्रणाम है। प्रद्युम्न को नमस्कार है और आप अनिरुद्ध को प्रणाम है।[1]आप अपना घोड़ा लीजिए और मैं भी इसकी रक्षा के लिए आपके साथ चलूंगा। ऐसा कहकर उसने नगर में जाकर अनिरुद्ध को घोड़ा लौटा दिया। साथ ही दस हजार हाथी, एक लाख घोड़े, पचास हजार रथ तथा एक सहस्र शिविकाएं उन्हें भेंट कीं। नृपश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त राजा अनुशाल्व ने एक हजार ऊँट, एक सहस्र गवय (वन गाय अथवा घड़रोज ) पिंजरे में बंद हो हजार सिंह, एक हजार शिकारी कुत्ते, एक सहस्स्र शिविर (तंबू–कनात), एक लाख रुनझुन शब्द करती हुई धनुष की प्रत्यंचाएँ, दस हजार पर्दे, एक लाख दुधारू गायें, सहस्र भार सुवर्ण, चार सहस्र भार चांदी और एक भार मोती अनिरुद्ध को अर्पित किए। तब अनिरुद्ध ने अत्यंत प्रसन्न हो उसे मणिमय हार भेंट किया। अनुशाल्व अपने राज्य पर श्रेष्ठ सचिव को स्थापित कर यादवों के साथ स्वयं भी अन्यान्य देशों को गया। भूपते ! तत्पश्चात् छूटा हुआ मणिमय और सुवर्ण मय आभूषणों से विभूषित वह अश्व वीरों से भरे दूसरे दूसरे देशों का दर्शन करता हुआ भ्रमण करने लगा। अनुशाल्व हार गया, यौवनाश्व तथा भीषण भी परास्त हो गए– यह सुनकर अन्यान्य मंडलेश्वर नरेशों ने अपने यहाँ आने पर उस घोड़े को नहीं पकड़ा। महाराज ! इस तरह घूमते हुए उस घोड़े को छ: मास बीत गए और उतने ही शेष रह गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ओम नमो वासुदेवाय नम: संकर्षणाय च। प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नम: (25/7)
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