गर्ग संहिता
मथुरा खण्ड : अध्याय 1
कंस का नारदजी के कथनानुसार बलराम और श्रीकृष्ण को अपना शत्रु समझकर वसुदेव-देवकी को कैद करना, उन दोनों भाइयों को मारने की व्यवस्था में लगना तथा उन्हें मथुरा ले आने के लिये अक्रूरजी को नन्द के व्रज में जाने की आज्ञा देना
'जो वसुदेवजी के यहाँ पुत्र-रूप से प्रकट हुए हैं, जिन्होंने कंस एवं चाणूर का मर्दन किया है तथा जो देवकी को परमानन्द प्रदान करने वाले हैं, उन जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। नारदजी ने कहा- नृपेश्वर ! एक दिन साक्षात परमात्मा श्रीहरि के मन से प्रेरित होकर मैं दैत्यवध सम्बन्धी उद्यम को आगे बढ़ाने के लिये उत्कृष्ट पुरी मथुरा के दर्शनार्थ वहाँ आया। आकर राजा कंस के दरबार में गया। वहाँ कंस इन्द्र से छीनकर लाये हुए सिंहासन के ऊपर, जहाँ श्वेत-छत्र तना हुआ था और सुन्दर चँवर डुलाये जा रहे थे, विराजमान था। वह बल, पराक्रम और क्रूरता के कारण नागराज के समान दुस्सह प्रतीत होता था। वहाँ पहुँचने पर उसने मेरा पूजन स्वागत सत्कार किया। उस समय मैंने उससे जो कुछ कहा, वह सुनो- 'मथुरा नरेश ! जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गयी थी, वह देवकी की नहीं, यशोदा की पुत्री थी। देवकी से तो श्रीकृष्ण ही उत्पन्न हुए और रोहिणी के पुत्र बलराम हैं। दैत्यराज ! वसुदेव ने तुम्हारे शत्रुभूत अपने दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण को अपने मित्र नन्दराज के यहाँ धरोहर के रूप में रख दिया है- इसलिये कि तुम्हारें भय से उनकी रक्षा हो सके। पूतना से लेकर अरिष्टासुर तक जो-जो उत्कट बलशाली दैत्य नष्ट हुए हैं, वे सब वन में उन्हीं दोनों के द्वारा मारे गये हैं। कहा जाता है कि वे ही दोनों तुम्हारी मृत्यु है'। मेरे यों कहने पर भोजराज कंस क्रोध से काँपने लगा। उसने शूरनन्दन वसुदेव को सभा में ही मार डालने के लिये तीखी तलवार हाथ में ली, परंतु मैंने उसे रोक दिया, तथापि उसने सुदृढ और विशाल बेड़ियों में पत्नी सहित उन्हें बाँधकर कारागार में बंद कर दिया। कंस के उक्त बात कहकर जब मैं चला गया, तब उस दैत्यराज ने श्रीकृष्ण और बलराम का वध करने के लिये दैत्यप्रवर केशी को भेजा। तदनन्तर बलवान भोजराज कंस ने चाणूर आदि मल्लों तथा कुवलयापीड नामक हाथी के महावत को बुलवाया और अपना कार्यभार सँभालने वाले अन्य लोगों को भी बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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