गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 24
रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान नारद जी कहते हैं- तदनंतर गोपिणों के साथ यमुनातट का दृश्य देखते हुए श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण रास-विहार के लिये मनोहर वृन्दावन में आये। श्री हरि के वरदान से वृन्दावन की ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब-की-सब व्रजांगना होकर, एक यूथ के रूप में संघटित हो, रासगोष्ठी में सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर! लतारूपिणी गोपियों का समूह विचित्र कांति से सुशोभित था। उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्री हरि वृन्दावन में विहार करने लगे। कदम्ब-वृक्षों से आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तट पर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थान को सुगन्धपूर्ण कर रही थी। वंशीवट उस सुन्दर पुलिन की रमणीयता को बढ़ा रहा था। रास के श्रम के थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधा के साथ आकर बैठे। उस समय गोपांगनाओं के साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदंग, मुरचंग आदि भाँति-भाँति के वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे। गोप-सुन्दरियाँ श्री हरि को आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगी। कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गाती तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थी। राजन ! कुछ गोपियों ने क्रमश: मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरों के साथ गान किया। नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यंत भोली-भाली थी और कुछ मुग्धाएँ थी। कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढ़ा नायिका की श्रेणी में आती थी। उन सबके मन श्रीकृष्ण में लगे थे। कितनी ही गोपांगाएँ जारभाव से गोविन्द की सेवा करती थी। कोई श्रीकृष्ण के साथ गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरि के साथ रहकर परस्पर फूलों से क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपांगनाएँ पैरों में नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरों की झंकार के साथ-साथ श्रीकृष्ण के अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्ण को दोनों भुआओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यंत निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिंगन करती थीं। इस प्रकार परम मनोहर वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान श्रीहरि केसर का तिलक धारण किये, गोपियों के साथ वृन्दावन में विहार करने लगे। कुछ गोपांगनाएँ वंशीधर की बाँसुरी के साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही मृदंग बजाती हुई भगवान के गुण गाती थीं। कुछ श्रीहरि के सामने खड़ी हो मधुर स्वर से खड़ताल बजातीं औअ बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी लता के नीचे चंग बजाती हुई श्रीकृष्ण के साथ सुस्थिर-भाव से गीत गाती थीं। वे भूतल पर सांसारिक सुख को सर्वथा भुलाकर वहाँ रम रही थी। कुछ गोपियाँ लता मण्ड़पों में श्रीकृष्ण के हाथ को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थी। किन्हीं गोपियों के हार लता-जाल से उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्ष:स्थल का स्पर्श करते हुए उन हारों को लता-जालों से पृथक कर देते थे। गोप सुन्दरियों को नासिका में जो नकबेसरें थीं, उनमें मोती की लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं। उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर स्वयँ सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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