गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 30
रम्यक वर्ष में कलंक राक्षस पर विजय; नै:श्रेयसवन, मानवी नगरी तथा मानव गिरि का दर्शन; श्राद्धदेव मनु द्वारा प्रद्युम्न की स्तुति श्री नारदजी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार हिरण्मयखण्ड पर विजय पाकर महाबली प्रद्युम्न देवलोक की भाँति प्रकाशित होने वाले रम्यक वर्ष में गये। उसका सीमा-पर्वत साक्षात गिरिराज ‘नील’ है। उसके उत्तरवर्ती काले देश में भयंकर नाद से परिपूर्ण ‘भीमनादिनी’ नाम की नगरी है। वहाँ कालनेमि का पुत्र कलंक नाम का राक्षस रहता था, जो त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्रजी से डरकर युद्ध भूमि से भाग आया था। वह लंकापुरी से यहाँ आकर राक्षसों के साथ निवास करता था। उसने दस हजार राक्षसों के साथ यादवों से युद्ध करने का निश्चय किया। काले रंग का वह राक्षसराज गधे पर आरुढ़ हो यादव सेना के सामने आया। यादवों और राक्षसों में घोर युद्ध होने लगा। प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, सह, ओज, महाशक्ति तथा अपराजित-लक्ष्मणा के गर्भ से उत्पन्न हुए श्रीकृष्ण के ये दस कल्याण स्वरूप पुत्र तीखे और चमकीले बाणों की वर्षा करते हुए सबसे आगे आ गये। जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बाण समूहों द्वारा राक्षस सेना को तहस नहस कर दिया। उनके बाणों से अंग छिन्न-भिन्न हो जाने पर वे रणदुर्मद राक्षस मदमत्त हो यादव सेना पर त्रिशूलों और मुद्ररों की वर्षा करने लगे। उस समय राक्षसराज कलंक हाथियों तथा रथियों को चबाता हुआ आगे बढ़ा। वह घोड़ों और अस्त्र–शस्त्रों सहित मनुष्यों को तत्काल मुंह में डाल लेता था। हौदों, रत्नजटित झूलों तथा घण्टानाद से युक्त हाथियों को पैरों की ओर से उठाकर बलपूर्वक आकाश में फेंक देता था। तब श्रीहरि के पुत्र प्रघोष ने कपीन्द्रास्त्र का संधान किया। उस बाण से साक्षात वायुपुत्र बलवान हनुमान प्रकट हुए। उन्होंने जैसे वायु रुई को उड़ा देती है, उसी प्रकार उस राक्षस को आकाश में सौ योजन दूर फेंक दिया। तब हनुमानजी को पहचान कर राक्षसराज कलंक ने गर्जना करते हुए लाख भार की बनी हुई भारी गदा उनके ऊपर फेंकी। हनुमानजी वेग से उछले और वह गदा भूमि पर गिर पड़ी। उछलते हुए वानरराज ने, बार-बार भौहें टेढ़ी करते हुए कलंक को एक मुक्का मारा और उसका किरीट ले लिया। तब कलंक को एक मुक्का मारा और उसका किरीट ले लिया। तब कलंक ने भी उस समय उन्हें मरने के लिये अपना त्रिशुल हाथ में लिया; किंतु वे कपीन्द्र हनुमान वेग से उछलकर उसकी पीठ पर कूद पड़े और दोनों हाथों से पकड़कर उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर वैदूर्य पर्वत को ले जाकर उसके ऊपर डाल दिया। पर्वत के गिरने से उसका कचूमर निकल गया, उसके सारे अंग चूर-चूर हो गये और वह मृत्यु का ग्रास बन गया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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