गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 57
ब्राह्मण भोजन, दक्षिणा-दान, पुरस्कार-वितरण, संबंधियों का सम्मान तथा देवता आदि सबका अपने अपने निवास स्थान को प्रस्थान श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! तदन्तर श्रीकृष्ण और भीमसेन के साथ यादवराज उग्रसेन ने ब्राह्मणों और राजाओं से प्रार्थना करके उन्हें भाँति-भाँति के पदार्थ भोजन कराये। उन्होंने ब्राह्मणों को निमंत्रित करके उत्तम शष्कुली (पूड़ी), खीर, भात, अच्छी दाल और कढ़ी, हलुवा, मालपूआ तथा सुन्दर फेणिका आदि विशेष अन्न परोसकर भलीभाँति भोजन कराया। शिखरिणी (सिखरन), घृतपूर (घेवर) सुशक्तिका (अच्छी-अच्छी साग-सब्जी), सुपटिनी (चटनी आदि), दधिकूप (दहीबड़ा) लप्सी तथा गोल, सुन्दर और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल सोहारी आदि को बड़े, लड्डू और पापड़ के साथ परोसा। उन ब्राह्मणों में से कुछ तो फलाहारी थे, कुछ सूखे पत्ते खाने वाले थे, कोई केवल जल पीकर रहने वाले और कोई दुर्बा के रस का आस्वादन करने वाले (दुर्वासा) थे। कोई हवा पीकर रहने वाले जन्मकाल से ही तपस्वी थे। कितने तो भोजनों (भोज्य पदार्थों) के नाम तक नहीं जानते थे। जब उनके सामने भाँति-भाँति के भोजन परोसे गये, तब उन्हें देखकर वे बडे़ विस्मित हुए। कोई भात को मालती के फूल समझने लगे, कई लड़डूओं को गूलर के फल मानने लगे, किन्हीं ने खीर और फेणिका देखकर उसे चन्द्रमा का विम्ब समझा, कई ब्राह्मणों ने पापड़ फेणिका को देखकर उन्हें पलाश के पत्ते समझा और ‘मधुशीर्षक’ नामक मिष्टान्न को आम का फल मान लिया, चटनी और लप्सी देखकर कितने ही ॠषि उन्हें घिसा हुआ चन्दन समझने लगे, किते ही मुनिश्रेष्ठ मीठा चूरन या शक्कर देखकर बालू समझने लगे। इस प्रकार की भावना मन में लेकर वे सब ब्राह्मण वहाँ भोजन कर रहे थे। कोई दूध पीते और कोई दाख का रस। कोई-कोई ब्राह्मण आम का रस पीते हुए जोर-जोर से हंसते और लोट जाते थे। तब भीमसेन के साथ भगवान कृष्ण सानन्द हंसते हुए वहाँ बैठे तपस्वी ब्राह्मणों के साथ परिहास करने लगे- ‘मुनियों ! आप जल्दी से इन भोजनों के नाम तो बताइये। आप जिनके नाम बतावेंगे, वे ही भोजन भीमसेन के साथ मैं आपके सामने प्रस्तुत करूंगा’। श्रीकृष्ण और भीमसेन की बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ कुछ बोल न सके, केवल आनन्दित होकर परस्पर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। तैलंग, कर्णाटकी, गुजराती, गौड़ और सनाढय आदि अनेक जाति के विभिन्न ब्राह्मणशिरोमणियों का राजाधिराज उग्रसेन ने सुवर्ण, वस्त्र तथा रत्नराशियों द्वारा पूजन करके उनके चरणों में मस्तक झुकाया। नरेश्वर ! यज्ञ के अन्त में राजा उग्रसेन ने सबसे पहले मुझे एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, दो हजार रथ, एक लाख धेनु और सौ भार सुवर्ण इतनी दक्षिणा विधिपूर्वक दी। मुझसे आधी दक्षिणा बकदाल्भ्य और ब्यासजी को दी। तत्पश्चात उग्रसेन ने निमंत्रित ब्राह्मणों में से प्रत्येक को प्रसन्नतापूर्वक एक हजार घोड़े, सौ हाथी, दौ सौ रथ, एक हजार धेनु और बीस भार सुवर्ण-इतनी दक्षिणा दी। राजन् ! पिर हर्ष से भरे यादवराज प्रत्येक ब्राह्मण को एक हाथी, एक रथ, एक गौ, एक घोड़ा, एक भार सुवर्ण और दो भार चांदी- इतनी-इतनी दक्षिणा दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |