गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 31
रम्यक वर्ष में मन्मथशालिनी पुरी के लोगों द्वारा श्रीकृष्ण लीला का गान; प्रजापति व्यति संवत्सर द्वारा प्रद्युम्न का पूजन; कामवन में प्रद्युम्न का अपने कामदेव- स्वरूप में विलय श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार रम्यकवर्ष पर विजय पाकर महाबली श्री कृष्णकुमार प्रद्युम्न सुमेरु पर्वत के पूर्व भाग में स्थित ‘केतुमाल’ वर्ष में गये। मिथिलेश्वर ! उस वर्ष का सीमा पर्वत ‘माल्यवान्’ है, जहाँ से ‘चार’ नाम वाली माहापातकनाशिनी गंगा प्रवाहित होती है। माल्यवान् गिरि के पास मन्मथ शालिनीपुरी हैं, जो अपने रत्नमय परकोटों और महलों से देवताओं की राजधानी (अमरावती) की भाँति शोभा पाती है। राजन् वहाँ के पुरुष कामदेव के समान कान्तिमान् हैं। उनकी अंग कान्ति शरद्-ऋतु के प्रफुल्ल नील-कमल के समान होती है और उनके नेत्र भी विकसित कमल दल की शोभा को लज्जित करते हैं। यहाँ की नव-यौवना कामिनियाँ पीताम्बर धारण करके फूलों के हार पहनकर मनोहर वेष में कन्दुकक्रीड़ा किया करती हैं। उनके शरीर का स्पर्श करके प्रवाहित होने वाली वायु मतवाले भ्रमरों की ध्वनि से निनादित हो चारों और सौ योजन विस्तृत भूभाग को सुवासित करती है। उस पुरी में निवास करने वाला बहुश्रुत मनुष्य नगर से बाहर निकले और प्रद्युम्न के सुनते-सुनते श्रीमुरारि के यश का गान करने लगे। केतुमालवासी बोले- जो जगत की पीड़ा हर लेने वाले साक्षात प्रधान पुरुषेश्वर आदि देव शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं और जिन्होंने देवताओं की प्रार्थना सुनकर भूलोक की रक्षा करने के लिये भारतवर्ष में अवतार लिया है, उन भगवान पुरुषोत्तम को नमस्कार है। वे प्रकट होने के बाद माता-पिता को बन्धन मुक्त करके शिशु रूप में पिता के घर से नन्द भवन को चले गये, वहाँ दयामती नन्दपत्नी यशोदा ने बड़े प्यार से उनका लालन-पालन किया, अनन्त मंगलमयी शोभा से सम्पन्न उन्होंने अपने को मारने के लिये आयी हुई पूतना के प्राणों का अपहरण कर लिया। बालक रूप में ही सोते हुए उन श्रीनन्दनन्दन ने छकड़े को उलट दिया और महादैत्य तृणावर्त की पीठ पर चढ़कर उसे मार गिराया। माता को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया, गर्गाचार्य ने उनकी सुन्दर सौभाग्य–लक्ष्मी का वर्णन किया। व्रज के लोगों ने उन्हें लाड़ लड़ाया, उनके द्वारा माखन चोरी की लीलाएँ हुई। श्याम मनोहर रूप धारी कोमल बालक श्रीकृष्ण ने दही के मटके फोड़कर उसमें से खूब दही खाया और माता ने जब छोटी-सी रस्सी से उन्हें ओखली में बांध दिया, तब उन्होंने वह ओखली अटकाकर दो यमल वृक्षों को तोड़ दिया, वृन्दावन में बछड़ों और ग्वाल-बालों के साथ विचरते हुए श्रीहरि ने कपित्थ वृक्षों द्वारा वत्सासुर को मारकर यमुना-किनारे बकासुर के तीखे चञ्चुपुटों को पकड़ लिया और दोनों हाथों से उस दैत्य को तिनके की भाँति चीर डाला। ग्वाल-बालों के साथ बहु संख्यक बछड़ों के समुदाय को चराते तथा वेणु बजाते हुए उन मदन मोहन वेषधारी प्रभु ने अघासुर के मुख में पड़े हुए गोपों और गौओं की रक्षा की और जब ब्रह्माजी ग्वालों और बछड़ों को चुरा ले गये, तब वे स्वयं ही तत्काल गोप-बालक और बछड़े बनकर पूर्ववत सारा कार्य चलाने लगे, वे ही भगवान श्रीकृष्ण सब के शरीर में क्षैत्रज्ञ एवं अन्तर्यामी आत्मा हैं। वे ही अनन्त, पूर्ण, प्रधान और पुरुष के ईश्वर (क्षर और अक्षर से अतीत पुरुषोत्तम) तथा आदिदेव हैं। वे अजन्मा प्रभु ग्वाल-बाल और बछड़ों का रूप धारण करके व्रज के अन्य बालकों में विहार करते और ब्रह्मजी को मोहित करते हुए सब ओर विचरने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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