गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 4
इन्द्र द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति तथा सुरभि ओर ऐरावत द्वारा उनका अभिषेक श्रीनारदजी कहते हैं– राजन् ! गर्व गल जाने के कारण देवराज इन्द्र देवताओं के साथ उस पर्वत पर आये ओर एकान्त में श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनसे बोले । इन्द्र ने कहा– आप देवताओं के भी देवता, सर्वसमर्थ, पूर्ण परमेश्वर, पुराण पुरुष, पुरुषोत्तमोत्तम, प्रकृति से परे तथा परात्पर श्रीहरि हैं। स्वर्ग के स्वामी जगत्पते ! मेरी रक्षा करने के लिये दस अवतार धारण करने वाले भगवान आप ही हैं। इस समय भी आप परिपूर्णतम देवता कंसादि दैत्यराजों के विनाश के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। आपकी माया से सिजकी चित्तवृति मोहित है, जो मद से उन्मत और अवहेलना का पात्र है, वही मैं आपका अपराधी इन्द्र हूँ। द्युपते ! जैसे पिता पुत्र के अपराध को क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप मुझ अपराधी को क्षमा करें। देवेश्वर ! जगन्निवास ! मुझ पर प्रसन्न होइये। गोवर्धन को उठाने वाले आप गोविन्द को नमस्कार है। गोकुल निवासी गोपाल को नमस्कार है। करूणा की निधि तथा ज्रगत के विधाता, विश्वमंगलकारी तथा ज्रगत के निवास स्थान आप परमात्मा को प्रणाम है। जो विश्व मोहन तथा करोड़ों कामदेवों के भी मन को मथ देने वाले हैं, उन वृषभानुनन्दिनी के स्वामी नन्दराज कुलदीपक परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है। असंख्य ब्रह्माण्डों के पति, गोलोक धाम के अधिपति एवं बलराम के साथ रहने वाले आप साक्षात भगवान श्रीकृष्ण को बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है। श्रीनारदजी कहते हैं–इन्द्र द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रात:काल उठकर पाठ करेगा, उसे सब प्रकार की सिद्धियां सुलभ होंगी और उसे किसी संकट से भय नहीं होगा।[1]इस प्रकार भगवान श्रीहरि की स्तुति करके देवराज इन्द्र ने हाथ जोड़कर समस्त देवताओं के साथ उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद क्षीरसागर से उत्पन्न हुई सुरभि गौने उस सुरम्य गोवर्धन पर्वतपर आकर अपनी दुग्ध धारा से गोपेश्वर श्रीकृष्ण को स्नान कराया। फिर मत्त गजराज ऐरावत ने गंगाजल से भरी हुई चार सूंडो द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक किया। राजन् ! फिर हर्षोल्लास से भरे हुए सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व और किन्नर ऋषियों को साथ ले वेद-मंत्रों के उच्चारणपूर्वक पुष्पवर्षा करते हुए श्रीहरि की स्तुति करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ त्वं देवदेव: परमेश्वर: प्रभु: पूरण: पुराण: पुरुषोत्तममोत्तम:। परात्परस्त्वं प्रकृते: फरो हरिर्मां पाहि पाहि द्युपते जगत्पते ।।दशावतरो भगवांस्त्वमेव रिरक्षया धर्मगवां श्रुतेश्व। अद्यैव जात: परिपूर्णदेव: कंसदिदैत्येन्द्रविनाशनाय ।।त्वन्मायया मोहितचित्तवत्तिं मदोद्धतं हेलनभाजनं माम् । पितेव पुत्रं द्युपते क्षमस्व प्रसीद देवेश जगन्निवास ।। ऊँ नमो गोवर्धनोद्धरणाय गोविन्दाय गोकुलनिवासाय गोपालाय गोपालपतये गोपीजनभर्त्रे गिरिजोद्धर्त्रे करूणानिधये जगद्विधये जगन्मंगलाय जगन्निवासाय जगन्मोहनाय कोटिमन्मथमन्मथाय वृषभानुसुतावराय श्रीनन्दराजकुलप्रदीपाय श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय त्वसंख्यब्रह्माण्डपतये गोलोकधामधिषणाधिपतये स्वयं भगवते सबलाय नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।श्रीनारद उवाचइति शक्रकृतं स्तोत्रं प्रातरूत्थाय य: पठेत् । सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य संकटान्न भयं भवेत् ।। (गर्ग0 गिरिराज0 4 । 2-6)
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