गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 3
श्री यमुना जी का गोलोक से अवतरण और पुन: गोलोक धाम में प्रवेश सन्नन्द जी कहते हैं- नन्दराज ! गोलोक में श्री हरि ने जब यमुना जी को भूतल पर जाने की आज्ञा दी और सरिताओं में श्रेष्ठ यमुना जब श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके जाने को उद्यत हुई, उसी समय विरजा तथा ब्रह्मद्र्व से उत्पन्न साक्षात गंगा- ये दोनों नदियाँ आकर यमुना जी में लीन हो गयीं। इसीलिये परिपूर्णतमा कृष्णा (यमुना) को परिपूर्णतम श्रीकृष्ण की पटरानी के रूप में लोग जानते हैं। तदनंतर सरिताओं में श्रेष्ठ कालिन्दी अपने महान वेग से विरजा के वेग का भेदन करके निकुन्ज-द्वार से निकलीं और असंख्य ब्रह्माण्ड-समूहों का स्पर्श करती हुई ब्रह्मद्रव में गयी। फिर उसकी दीर्घ जल राशि का अपने महान वेग से भेदन करती हुई वे महानदी श्रीवामन के बायें चरण के अँगूठे के नख से विदीर्ण हुए ब्रह्माण्ड़ के शिरोभाग में विद्यमान ब्रह्मद्व्र युक्त विवर में श्री गंगा के साथ ही प्रविष्ट हुई और वहाँ से वे सरिद्वरा यमुना ध्रुव मण्डल में स्थित भगवान अजित विष्णु के धाम वैकुण्ठ लोक में होती हुई ब्रह्म लोक को लाँघ कर जब ब्रह्म मण्डल से नीचे गिरी, तब देवताओं के सैकड़ों लोकों में एक-से-दूसरे के क्रम से विचरती हुई आगे बढ़ीं। तदनंतर वे सुमेरू गिरि के शिखर पर बड़े वेग से गिरी और अनेक शैल-शृंगो को लाँघ कर बड़ी-बड़ी चट्टानों के तटों का भेदन करती हुई जब मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा की ओर जाने को उद्यत हुई, तब यमुना जी गंगा से अगल हो गयी। महानदी गंगा तो हिमवान पर्वत पर चली गयी, किंतु कृष्णा (श्याम सलिला यमुना) कलिन्द-शिखर पर जा पहुँची। वहाँ जाकर उस पर्वत से प्रकट होने के कारण उनका नाम ‘कालिन्दी’ हो गया। कलिन्द गिरि के शिखरों से टूटकर जो बड़ी-बड़ी चट्टानों पड़ी थीं, उनके सुदृढ़ तटों को तोड़ती-फोड़ती और भूखण्ड पर लोटती हुई वेगवती कृष्णा कालिन्दी अनेक देशों को पवित्र करती हुई खाण्ड़व वन में (इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली के पास) जा पहुँची। यमुना जी साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति बनाना चाहती थी, इसलिये वे परम दिव्य देह धारण करके खाण्ड़व वन में तपस्या करने लगीं। यमुना के पिता भगवान सूर्य ने जल के भीतर ही एक दिव्य गेह का निर्माण कर दिया था, जिसमें आज भी वे रहा करती हैं। खाण्डव वन से वेगपूर्वक चलकर कालिन्दी व्रज मण्डल में श्री वृन्दावन और मथुरा के निकट आ पहुँची। महावन के पास सिकतामय रमण स्थल में भी प्रवाहित हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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