गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
संग्रामजित के हाथ से भूत-संतापन का वध नारदजी कहते हैं- राजन् ! हृष्ट को मारा गया सुनकर शकुनि के क्रोध की सीमा न रही। उसने देवताओं को भी भय देने वाले अपने भाइयों को भेजा। भूत-संतापन नामक दैत्य हाथी पर चढ़कर निकला। वृक दैत्य गधे पर और कालनाभ सूअर पर चढ़कर आया। महानाभ मतवाले ऊंट पर तथा हरिशमश्रु तिमिंगिल (अतिकाय मगरमच्छ) पर बैठकर निकला। मयासुर का बनाया हुआ एक विजय शील रथ था, जिस पर वैजयन्ती पताका फहराती थी। इसलिये वह ‘वैजयन्त’ और ‘जैत्र’ कहलाता था। उसका विस्तार पाँच योजन का था और उसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। वह मायामय रथ इच्छानुसार चलने वाला तथा सैकड़ों पताकाओं से सुशोभित था। उसमें एक हजार कलश लगे थे और मोती की झालरें लटक रही थीं। वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित तथा सौ चन्द्रमाओं के समान उज्जवल था। उसमें एक हजार पहिये लगे थे तथा उसमें लटकाये गये बहुत-से घंटे उसकी शोभा बढ़ाते थे। शकुनि उसी रथ पर आरुढ़ हो सबसे पीछे युद्ध की इच्छा से निकला। मैथिलेश्वर ! उसके साथ बारह अक्षौहिणी दैत्यों की सेना थी। धनुषों की टंकार, वीरों के सिंहनाद, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की घरघराहट तथा हाथियों की चीत्कारों से मानो समस्त दिड्मण्डल गर्जना कर रहा था। दैत्य सेना के अभियान से समस्त भूमण्डल कांप ने लगा। नरेश्वर ! अनेकानेक पर्वत धराशायी हो गये। समुद्र विक्षुब्ध हो उठे और अपनी मर्यादा को लांघ गये। देवताओं ने तुरंत ही अमरावतीपुरी के दरवाजे बंद कर लिये और वहाँ अर्गला डाल दी। उस भीषण सेना को देखकर धनुर्धारियों में श्रेष्ठ, बलवान तथा धैर्यशाली वीर श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न यदुकुल के श्रेष्ठ वीरों से इस प्रकार बोले। प्रद्युम्न ने कहा- वीरो ! भूतल पर जो हमारा यह शरीर है, पांच भूतों का बना हुआ है, फेन के समान क्षणभंगुर है, कर्म और गुण आदि से इसका निर्माण हुआ है। इसका आना-जाना लगा रहता है तथा यह काल के अधीन है। यह जगत बालकों के रचे हुए खिलवाड़ के समान है। विद्वान पुरुष इसके लिये कभी शोक नहीं करते। सात्त्विक पुरुष ऊर्ध्वलोक में गमन करते हैं, राजस मनुष्य मध्यलोक में स्थित होते हैं और तामस जीव नीचे के नरक लोकों में जाते हैं। इन तीनों से जो भिन्न हैं, वे बारंबार कर्मानुसार विचरते हुए नाना योनियों में जन्मते-मरते रहते है। यह लोक सब ओर से भयगस्त है; जैसे नेत्रों के घूमने से धरती व्यर्थ ही घूमती-सी प्रतीत होती है, उसी प्रकार यह मन: कल्पित सम्पूर्ण जगत भ्रान्त होता है। जैसे कांच (दर्पण आदि) में प्रतिबिम्बित अपने ही स्वरूप को देखकर बालक मुग्ध होता है, उसी प्रकार यहाँ सब कुछ भ्रान्ति पूर्ण है। जैसे मण्डलवर्ती जनों का सुख अस्थिर होता है, उसी प्रकार पाताल निवासियों का भी सुख अचल नहीं है। यज्ञों द्वारा उपलब्ध देवताओं के सुख को भी इसी प्रकार चंचल समझना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष यही सोचकर समस्त सांसारिक सुख को तिनके के समान त्याग देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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