गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 19
लीला-सरोवर, हरिमन्दिर, ज्ञानतीर्थ, कृष्ण-कुण्ड, बलभद्र-सरोवर, दानतीर्थ, गणपति तीर्थ और मायातीर्थ आदि का वर्णन श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! द्वारावती मण्डल सौ योजन विस्तृत है। उनकी पूरी परिक्रमा चार सौ योजनों की है। उसके बीच में श्रीकृष्ण निमित दुर्ग बारह योजन विस्तृत है। दूसरा बाहरी दुर्ग नब्बे कोसों में महात्मा श्रीकृष्ण द्वारा निर्मित हुआ है, जो शत्रुओं के लिये दुर्लंघय है। राजन! तीसरा बाहरी दुर्ग दो कम दो सौ कोसों में संघटित हुआ है, जिसमें रत्नमय प्रासादों का निर्माण हुआ था। इनके अन्तर्दुर्ग भी महात्मा श्रीकृष्ण के नौ लाख विचित्र मन्दिर हैं। वहाँ राधा-मन्दिर के द्वार पर ‘लीला-सरोवर’ है जो समस्त तीर्थों में उत्तम माना गया है। राजन् ! उसका गोलोक से आगमन हुआ है। उसमें स्नान करके व्रत धारणपूर्वक एकाग्रचित्त हो, अष्टमी तिथि को विधिवत सुवर्ण का दान दे, तीर्थ को नमस्कार करे तो पापी मनुष्य भी कोटिजन्मों के किये हुए पापों से मुक्त हो जाता है- इसमें संशय नहीं है। प्राणान्त होने पर उस मनुष्य को लेने के लिये निश्चय ही गोलोक से एक विशाल विमान आता है, जो सहस्त्रों सूर्यों के समान तेजस्वी होता है। वह मनुष्य दस कामदेवों के समान लावण्यशाली, रत्नमय कुण्डलों से मण्डित, वनमाला-धारी, पीताम्बर से आच्छादित, सहस्त्रों पार्षदों से सेवित दिव्यरूप धारण कर लेता है। उसके दोनों ओर चँवर डुलाये जाते हैं, जय-जयकार की जाती हैं, वेणुध्वनि के साथ दुन्दुभियों गम्भीर नाद होता रहता है। इस अवस्था में वह उस श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ हो गोलोक धाम में जाता है, इसमें संशय नहीं है। महामते राजन्! अब अन्य तीर्थों का वर्णन सुनो ! वहाँ सोलह हजार एक सौ आठ तीर्थ हैा और वहाँ श्रीकृष्ण की उतनी ही पत्नियों के पृथक-पृथक भवन हैं। उन सबकी बारी–बारी से परिक्रमा और वन्दना करके ‘ज्ञानतीर्थ’ में गोता लगाकर जो पारिजात का स्पर्श करता है उसे तत्काल ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की प्राप्ति हो जाती है। उसके हृदय में भगवान श्रीकृष्ण सदा प्रसन्नचित होकर वास करते हैं। समूची सिद्धियां और समृद्धियां स्वभावत: उसकी सेवा में उपस्थित रहती है जो श्रीहरि के मन्दिर का दर्शन करता है, वह मुक्त और कृतार्थ हो जाता है। उसके समान दूसरा कोई वैष्णव नहीं है और उस तीर्थ दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। भगवान के मन्दिर का विस्तार पांच योजन है। वहाँ से सौ धनुष की दूरी पर ‘श्रीकृष्ण–कुण्ड’ है जो भगवान श्री कृष्ण के तेज से प्रकट हुआ है। उसी कुण्ड में स्नान करके जाम्बवती नन्दन साम्ब कुष्ठरोग से मुक्त हुए थे। उस कुण्ड के दर्शनमात्र से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है। मैथिल ! वहाँ से अठारह पद की दूरी पर पूर्व दिशा में सब तीर्थों उत्तम, पुण्यदायक और विशाल ‘बलभद्र-सरोवर’ है। महाबली बलदेवजी ने पृथ्वी की परिक्रमा करके जहाँ यज्ञ किया, वहीं उस सरोवर का निर्माण कराकर वे रेवती रानी के साथ विराजमान हुए। उसमें स्नान करके मनुष्य तत्काल समस्त पातकों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी की परिक्रमा फल उसके लिये दुर्लभ नहीं रहा जाता। राजन् ! भगवान के मन्दिर से सहस्त्र धनुष आगे दक्षिण दिशा में गणनाथ का महान तीर्थ है। राजन् ! अपने पुत्र प्रद्यम्न को जन्म देने पर,जब वे दस दिन बीतने पर पहले ही अपहृत कर लिये गये, तब रुक्मिणी ने जहाँ गणेश-पूजा का अनुष्ठान किया था, वहीं गणनाथ ’तीर्थ’ है। नृपश्रेष्ठ ! वहाँ स्नान करके जो स्वर्ण का दान देता है, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है और उसका वंश बढ़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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