गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 18
राक्षस भीषण द्वारा यज्ञीय अश्व का अपहरण तथा विमान द्वारा यादव–वीरों की उपलंका पर चढ़ाई श्रीगर्गजी कहते हैं– राजन् ! तदनन्तर अनिरुद्ध के प्रयास से छूटा हुआ वह दुग्ध के समान उज्ज्वलयज्ञ संबंधी अश्व स्वेच्छा से सिंहल द्वीप के निकट विचरने लगा। वह व्यास से पीड़ित था। घोड़े ने देखा, सामने ही बहुत से वृक्षों द्वारा आवृत और जल से भरी हुई एक बावड़ी है। उसे देख, वह स्वयं जाकर उसका पानी पीने लगा। बावड़ी में अश्व को देखकर एक भीषण नाम वाले राक्षस ने उसके भाल में लगे हुए पत्र को पढ़ा और बड़ी प्रसन्नता से उस घोड़े को पकड़ लिया। इसी समय सब यादव, जिनकी दृष्टि घोड़े पर ही लगी हुई थी, वहाँ आ पहुँचे। आकर उन्होंने देखा–यज्ञ के अश्व को एक राक्षस ने पकड़ रखा है। तब वे युद्धशाली यादव उस राक्षस से बोले। यादवों ने कहा- अरे ! तू कौन है ? जैसे सिंह की वस्तु को सियार ले जाए, उसी तरह यादवेंद्र महाराज उग्रसेन के घोड़े को लेकर तू कहाँ जाएगा ? धूर्त ! खड़ा रह, खड़ा रह। हमारे साथ धैर्यपूर्वक युद्ध कर ! हम घोड़े को तेरे हाथ से छुड़ा लेंगे तथा रणभूमि में तेरा वध कर डालेंगे। भाइयों सहित शकुनि, नरकासुर, बाणासुर और कलंक– ये समस्त राक्षसराज हमारे हाथ से मारे जा चुके हैं। तू तो उनके सामने तिनके के तुल्य है। अत: हमसे युद्ध में तुझे कुछ भी नहीं गिनेंगे ! तू घोड़ा देकर चला जा, नहीं तो हम तुझे मार डालेंगे। उनका यह भाषण सुनकर देवताओं को भी भयभीत करने वाले भीषण ने शूल, गदा और खड्ग लेकर बड़े रोष के साथ उन सबसे कहा। भीषण बोला– अरे ! तुम लोग क्या मेरा सामना कर सकते हो। मनुष्य तो हमारे भोजन हैं। वे राक्षसों के सामने कौन सा पुरुषार्थ प्रकट करेंगे ? पहले जब यादवराज ने विश्वजित यज्ञ किया था, तब मैं राक्षसों को लाने के लिए लंका चला गया था। उन्हें लेकर जब मैं अपनी पुरी में लौटा तो नारदजी के मुख से सुना कि वह यज्ञ पूरा हो गया। अब तुम लोगों ने पुन: अश्वमेध यज्ञ करने का प्रयास व्यर्थ ही किया है। तुम लोगों में कौन ऐसे वीर हैं, जो मेरे पकड़े हुए घोड़े को छुड़ा सकें। अत: घोड़े की आशा छोड़ कर तुम लोग जाओ, चले जाओ। नहीं तो मेरे चार लाख अनुयायी राक्षस तुम सबको खा जाएंगे। इस स्थान से बारह योजन दूर समुद्र में मेरी बनाई हुई पुरी है, जिसका नाम उपलंका है। जैसे भोगवतीपुरी सर्पों से भरी रहती है, उसी प्रकार उपलंका निशाचरगणों से परिपूर्ण है। राजन् ! ऐसा कह कर घोड़ा लिए आकाश मार्ग से वह सहसा अपनी पुरी को चला गया और समस्त यादव शोक करने लगे। तब अनिरुद्ध कहने लगे– भोजराज के इस अश्व को जिसे निशाचर ले गया है, हम कैसे छुड़ाएंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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