गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 43
श्रीकृष्ण का श्रीराधा और गोपियों के साथ विहार तथा मानवती गोपियों के अभिमानपूर्ण वचन सुनकर श्रीराधा के साथ उनका अन्तर्धान होना श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वृक्षों, लताओं और भ्रमरों से व्याप्त तथा शीतल मंद पवन से वीजित वृंदावन में मुरली के छिद्रों को मुखोद्गत समीर से भरते– वेणु बजाते हुए नन्दनन्दन श्रीहरि बारंबार देवताओं का मन मोहने लगे। तदनंतर वेणु गीत सुनकर प्रेम विह्वल कीर्ति नंदनी श्रीराधा ने प्रियतम नन्दनन्दन को दोनों बांहों में भर लिया। गोकुलचंद्र श्रीकृष्ण ने गोकुल की चकोरी राधा को प्रेमपूर्वक निहारते हुए फूलों की सेज पर उनके मन को लुभाते हुए उनके साथ आनंदमयी क्रीड़ा की। श्रीकृष्ण के साथ विहार का सुख पाकर स्वामिनी श्रीराधा ब्रह्मानंद में निमग्न हो गईं। उन्होंने स्वामी को वश में कर लिया और वे परमानंद का अनुभव करने लगीं । राजन् ! प्रेमानंद प्रदान करने वाले रमणीय रमावल्लभ श्रीहरि को गोपरामाओं ने रासमण्डल में सब ओर से पकड़ लिया। उनमें सौ यूथों की युवतियां विद्यमान थीं। नरेश्वर ! रमणीय नन्दनन्दन श्रीहरि ने रास मण्डल में जितनी व्रज सुंदरियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके उनके साथ विहार किया। जैसे संत पुरुष ब्रह्म का साक्षात्कार करके परमानंद में निमग्न हो जाते हैं, उसी प्रकार वे वृंदावन विहारिणी समस्त गोप सुंदरियँ बांके विहारी के साथ विहार का सुख पाकर ब्रह्मानंद में डूब गईं। श्रीवल्लभश्याम सुंदर ने अपने शोभाशाली युगल करकमलों द्वारा उन संपूर्ण व्रज वनिताओं को अपने हृदय से लगाया, क्योंकि उन्होंने अपनी भक्ति से भगवान को वश में कर लिया था। उन गोप सुंदरियों के मुखों पर पसीने की बूंदें छा रही थीं। व्रजवल्लभ श्रीकृष्ण बड़े प्यार से अपने पीताम्बर द्वारा उन पसीनों को पोंछा। उन गोपांगनाओं की तपस्या के फल का मैं क्या वर्णन कर सकता हूँ ? उन्होंने सांख्य, योग, तप, उपदेश श्रवण, तीर्थ सेवन तथा गान आदि के बिना ही केवल प्रेममूलक कामना से श्रीहरि को प्राप्त कर लिया । तदनंतर समस्त गोपियाँ अभिमान में आकर परस्पर ओछी बातें करने लगीं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के विहार सुख से पूर्णत: परितृप्त थीं। वे कहने लगीं- सखियों ! पहले श्रीकृष्ण हम लोगों को छोड़कर मथुरापुरी चले गए थे, जानती हो क्यों ? क्योंकि वे स्वयं परम सुंदर हैं, अत: नगर में परम सुंदरी रूपवती स्त्रियों को देखने गए थे। परंतु वहाँ जाने पर भी उन्हें मन के अनुरूप सुंदरियाँ नहीं दृष्टिगोचर हुईं, तब उन्होंने एक सुंदरी राजकुमारी के साथ विवाह किया। वह थी– भीष्मक राजनंदनी रुक्मणि ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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